Book Title: Vividh Aayamo Me Swarup Darshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 4
________________ हो जाती है, तब तक प्राणी उसे पाने के लिए प्रयत्न करता रहता है । यह बात दूसरी है कि जो सुख नहीं है, उसे भी हमने अज्ञानवश सुख की कल्पना से जोड़ लिया है। धन-परिवार और भोग का सुख, अज्ञान की कल्पना के साथ जुड़ा है। पर, यह अज्ञान भी तो हमारा ही है। ज्ञान ही तो विपरीत एवं विकृत होने पर अज्ञान होता है। और जो अज्ञान को समझता है कि यह 'अज्ञान है' वही ज्ञानी होता है। आप अँधेरे में चल रहे हैं, कोई खड़ा दिखाई दिया। आपने भ्रान्त कल्पना की, शायद कोई आदमी है, पर जब प्रकाश की कोई किरण चमकी और आपने देखा कि यह प्रादमी नहीं, ठूठ है, तो यह पहले का अज्ञान दूर हो कर ज्ञान हो गया। अपना अज्ञान वही समझ सकता है, जो चिन्तक है। अज्ञान क्या हैविपरीत ज्ञान, या भ्रम ! ज्ञान का अभाव अज्ञान नहीं है। वह अज्ञान तो जड़ के पास है, जिसे कभी भी ज्ञान नहीं हो पाता। चेतन के स्वभाव में यह अज्ञान रह नहीं सकता। भले ही ज्ञान की गति विपरीत चल रही हो, परन्त वह समय पर ठीक हो सकती है। किसी के पास बहुत-सा धन है, तो वह धनी है, फिर उस धन का गलत उपयोग करता है, तो यह बात दूसरी है, किन्तु समय पर ठीक उपयोग भी कर सकता है। ____ मैं कह रहा था कि अज्ञानवश जिसे सुख समझ लिया है और उसके पीछे दौड़ लगा रहे हैं, वह भी हमारी तीव्र सुखेच्छा का व्यक्त रूप है। इसीलिए एक दिन भगवान महावीर ने कहा था 'सम्वे पाणा सुहसाया, दुह पडिकूला।' -पाचारांग, १, २, ३. भूमंडल के समस्त प्राणी सुख चाहते हैं, सुख उन्हें प्रिय है, सुख की साधना कर रहे हैं, दुःख से कतराते हैं। सुख का यह स्वर कहाँ से आया? सुख की कामना क्यों जगी हमारे अन्दर ? इसीलिए न कि सुख हमारा स्वरूप है ? स्वयं सुखी रहना, यही हमारी साधना है। आपको कोई सुखी देख कर यह पूछे कि आप सुखी क्यों हैं ? तो क्या उत्तर होगा आपका ? शायद आपका टेम्प्रेचर चढ़ जाए और आप डाँटते हुए कह उठे कि तुम्हें इसकी क्या पड़ी कि हम सुखी क्यों हैं ? प्रसन्न क्यों हैं? सुखी नहीं, तो क्या दुःखी रहें ? मुहर्रमी सूरत बनाए बैठे रहें ? संसार में मुंह लटकाए घूमते रहें? यह जीवन सुख के लिए है, सुखी और प्रसन्न रहने के लिए है। हँसने और हँसाने के लिए है, रोने-चीखने के लिए नहीं। साधना में दुःखानुभूति क्यों ? कभी-कभी हमारे साधक कहते है कि सुखी रहने की बात कुछ समझ में नहीं आती। मैं पूछता हूँ कि इसमें क्या आपत्ति है ? तो कहते हैं----“साधना करते-करते तो दु:ख का अनुभव होता है, कष्ट और पीड़ाएँ होती हैं।" मैं कहता हूँ, यदि साधना करते हुए दुःख की अनभति जगती है, मन खिन्न होता है, तो वह साधना कैसी? ऐसी दु:खमयी साधना से तो साधना न करना ही अच्छा है। साधना का तो अर्थ है-उपासना ! किन्तु उपासना किसकी ? अपने स्वरूप की ही न ! लेकिन स्वरूप क्या है ? आनन्दमय । मतलब यह हुआ कि सुख की साधना करते समय दुःख का अनुभव होता है, यह तो गलत बात है। अमृत पीते हुए जहरसी कड़वी घट लगती है, तो या तो अमत नहीं है, या फिर पीना नहीं आया है। साधना में तो आनन्द और सुख की रसधारा बहनी चाहिए। जिस साधना के उत्स से सुख का स्रोत न फूटे, वह साधना ही क्या? वह तो परवशता की साधना है, जिसमें क्लेश और पीड़ा के काँटे चुभते रहते हैं। वह स्वतंत्र साधना कदापि नहीं है। जिस साधना में दुःख की, उद्विग्नता की, खिन्नता की अनुभूति होती है, उससे कर्मों की निर्जरा क्या होगी, नए कर्मों का बंध ही होगा? जहाँ मन में दुःख है, वहाँ परवशता है, जहाँ परवशता है, वहाँ बन्धन है । अतः वह साधना तो उलटे कर्मबन्ध का कारण ही बन गई। अतः मैंने कहा कि ऐसी साधना से, तो साधना नहीं करना अच्छा है। पन्ना समिक्खए धम्म Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15