Book Title: Vividh Aayamo Me Swarup Darshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf

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Page 13
________________ प्रकार के ऋण की चर्चा मिलती है । ' कहा जाता है कि प्रत्येक मनुष्य पैदा होते ही ये चारों तरह के ऋण अपने साथ लेकर पाता है। देव ऋण--(देवताओं का ऋण) ऋषि ऋण (ऋषियों का ऋण) पितृ ऋण (पूर्वजों का ऋण) और मनुष्य ऋण (परिवार, समाज व राष्ट्र के मनुष्यों का ऋण) । ___ऋण का अर्थ यही है कि मनुष्य जन्म लेते ही सामाजिक एवं पारिवारिक कर्तव्य व उत्तरदायित्त्व के साथ बँध जाता है। मनुष्य ऋण का स्पष्ट मतलब यह है कि मनुष्य का मनुष्य के प्रति एक स्वाभाविक सहकार व दायित्व होता है, एक कर्तव्य की जिम्मेदारी होती है, जिससे वह कभी भी किसी भी स्थिति में भाग नहीं सकता। यदि उस ऋण को बिना चुकाए भागता है, तो वह सामाजिक अपराध है, एक नतिक चोरी है। इस विचार की प्रतिध्वनि जैन प्राचार्य उमास्वाति के शब्दों में भी गुज रही हैं-"परस्परोपग्रहो जीवानाम्" प्रत्येक प्राणी एक दूसरे-प्राणी से उपकृत होता है, उसका प्राधार व आश्रय प्राप्त करता है। यह प्राकृतिक नियम है। जब हम किसी का उपकार लेते हैं, तो उसे चुकाने की भी जिम्मेदारी हमारे ऊपर पाती है। यह आदान-प्रतिदान की सहज वृत्ति ही मनुष्य की पारिवारिकता एवं सामाजिकता का मूल केन्द्र है। उसके समस्त कर्तव्यों, तथा धर्माचरणों का आधार है। यदि कोई इस पारिवारिक एवं सामाजिक भावना को, एकान्त मोह तथा राग की दुर्गन्ध बताकर, उससे दूर भागने की बात कहता है, तो मैं उसे पलायनवादी मनोवत्ति कहेंगा। यह सिर्फ उथला हा एकांगी चिंतन है। वह विकास प्राप्त मानव-जाति को पूनः अतीत के गहामानव की ओर खींचने का एक दष्प्रयत्न मात्र है। यदि पारिवारिक राग और मोह से भागना ही उचित होता, तो भगवान् ऋषभदेव स्वयं पहल करके पारिवारिक व्यवस्था की नींव क्यों डालते? यद्यपि विवाह को आज तक किसी ने अध्यात्म-साधना का रूप नहीं दिया, किन्तु धर्म-साधना का एक सहायक कारण अवश्य माना है। गृहस्थाश्रम को साधु-जीवन का आधार क्यों बताया है ? इसलिए कि उसमें मनुष्य की समाजिक चेतना सहस्ररूप होकर विकसित होती है। मनुष्य ने केवल वासना पूर्ति के लिए ही विवाह नहीं किया। वह तो आपकी चाल भाषा के अनुसार कहीं भी करूप में कर सकता था, किन्तु इस वृत्ति को भगवान न असामाजिक बताया, महा पाप का रूप दिया, और पती-पन्ती सम्बन्ध को एक उदात्त नेतिक आदर्श के रूप में माना। इस सम्बन्ध में एक बात और बता दूं कि जैन-प्राचार-दर्शन ने पर-स्त्री के प्रति राग को अपवित्न एवं अनुचित राग माना है, जबकि स्व-स्त्री के राग को उचित, जीवन-सहायकः राग के रूप में लिया है। यह बात इसलिए महत्त्व की है, चूंकि जैन-दर्शन को लोगों ने एकान्त रुतु वैरागियों का दर्शन समझ लिया है। कछ लोग इसे भगोड़ों का दर्शन कहते है। जिसका मतलब है कि घर-बार-परिवार छोड़कर जंगल में भाग जाओ।। यह एक भ्रान्ति है, महज गलत समझ है। जैन-दर्शन, जिसका प्राण अहिंसा है, मनुष्य को सामाजिक, पारिवारिक और राष्ट्रिय आदर्श की बात सिखाता है, करुणा, सेवा, समर्पण का संदेश देता है। नैतिक जिम्मेदारी और कर्तव्य को निभाने की बात कहता है। मैंने प्रारम्भ में ही आपको बताया कि प्रत्येक विचार के हजारों-हजार पहलू हैं, अनन्त रूप है। जब तक उसके सर्वांग चिंतन का द्वार नहीं खुलेगा, उसके सम्पूर्ण रूप को समझने की दृष्टि नहीं जगेगी, तब तक हम हजारों-हजार बार जैन-कुल में जन्म लेकर भी जैनत्व का मूल स्पर्श नहीं कर पाएंगे। का उत्तरकालीनों में तीन निदेव मिश्रण और पिता किन्त Tree में चार ऋण माने जाते थे जैमा उल्लेख प्राप्त है ऋणं ह वै जायते योऽस्ति। स जायमानो एव देवेभ्य ऋषिभ्यः पितृभ्यो मनुष्येभ्यः---शतपय ब्राह्मण, १, ७, २, १. विविध आयामों में : स्वरूप दर्शन Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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