Book Title: Vividh Aayamo Me Swarup Darshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf

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Page 11
________________ अतः जीवन की, धर्म की एवं सत्य की सर्वांगता को स्पर्श करने का व्यापक एवं सम्यक् दृष्टिकोण हमारे पास होना चाहिए। कोई भी एक गुण हो, उसके सम्यक्-विकास में आप चाहे जितने गुणों का रूप निखार सकते हैं। हर गुण अनन्त स्वरूप है। अतः आप एक गुण के सहारे अनेक गुणों को धीरे-धीरे जीवन में अभिव्यक्त कर सकते हैं। सरल-भाव की नम्रता एक दिव्य गुण है। अहिंसा : नम्रता का एक रूपः । हिंसा भी नम्रता का ही एक रूप हैं। मन की कोमलता हृदय की पवित्रता, वाणी की मधुरता, ये सब नम्रता के ही स्वरूप है ! मन की पवित्रता के बिना नम्रता अधूरी है, वाणी की मधुरता के बिना नम्रता लंगड़ी है। यदि मत में कोमलता और सरलता नहीं है, तो दिखाऊ नम्रता राक्षसी का-सा बेडौल रूप है। अतः ये सब गुण मिलकर ही तो अहिंसा का पावन रूप लेते है। कोमलता और मधुरता के बिना अहिंसा का अस्तित्व ही क्या? सृष्टि के समस्त चैतन्य के साथ जब तक प्रात्मानुभूति नहीं जगती, तब तक अहिंसा के विकास का अवसर ही कहाँ है ? वैयक्तिक चेतना जब समष्टिगत चेतना के साथ एकाकार होती है, तो मानव मन स्नेह, सरलता एवं कोमलता से सराबोर हो जाता है, और यही तो अहिंसा का समग्ररूप है, सर्वांगीण विकास है। व्यक्ति जब अपने से ऊपर उठकर समष्टि के साथ ऐक्यानुभूति करने लगता है-- 'आयतुले पयासु'--- अर्थात् सबको आत्म-तुल्य समझने का सूत्र जब जीवन में साकार होने लगता है, तब अहिंसा अपने समग्र रूपों के साथ विकास पाती है। ___ अहिंसा के सम्बन्ध में यह एक बड़ी भ्रान्ति है कि वह साधु-संतों के जीवन का आदर्श होती है, गृहस्थ जीवन में उसका विकास नहीं हो सकता! किंतु मेरा विचार है कि अहिंसा के विकास और प्रयोग की संभावना जितनी गृहस्थ-जीवन में, पारिवारिकजीवन में है, उतनी अन्यत्र कहीं है ही नहीं। पारिवारिक भूमिका पर कोई भाई-बहन है, कोई पिता-पुत्र है, कोई माँ-बेटी है, कोई सास-बहू है, कोई पति-पत्नी है। इन सारे सम्बन्धों की भाषा पारिवारिक एवं सामाजिक भाषा है। कहा जा सकता है कि इस भाषा में राग है, मोह है, अतः इसमें बंधन भी है। परन्तु मेरी दृष्टि कुछ और है। राग भाषा में नहीं, भावना में होता है, बंधन दृष्टि में होता है। यदि इन्हीं शब्दों के साथ हमारी चेतना का विराट् स्वरूप जुड़ा हना हो. हमारी समष्टिगत चेतना का स्पंदन इनमें हो. तो ये ही उदात्त प्रेम. और वात्सल्य के परिचायक हो सकते हैं। इन्हीं शब्दों के नाद में कर्तव्य की उदात्त पुकार और प्रेरणा सुनी जा सकती है। नंदी सूत्र में जहाँ तीयंकरों की स्तुति की गई है, वहाँ भाव विभोर शब्दों में कहा गया है--'जयइ जगपियामहो भयवं"---जगत् के पितामह भगवान् की जय हो। भगवान् को जगत का पितामह अर्थात् दादा कहा है। इस शब्द के साथ वात्सल्य की कितनी उज्ज्वल धारा है। शिष्य के लिए 'वत्स' (पुत्र) शब्द का प्रयोग आगमों में अनेक स्थान पर होता रहा है, क्या इस शब्द में कहीं राग की गन्ध है ? नहीं, इन शब्दों के साथ पारिवारिक-चेतना का उदात्तीकरण हुआ है, पारिवारिक-भाव विराट् अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। मनष्य जाति को विरासत : मैं मानता हूँ, मनुष्य जाति भाग्यशाली है, जिसमें पारिवारिक चेतना का विकास है। अन्य कौन-सी जाति एवं योनि है, जहाँ पारिवारिक भाव है ? एक-दूसरे के प्रति समर्पित होने का संकल्प है ? नरक में असंख्य-असंख्य नारक भरे पड़े हैं। एक पीड़ा से रोता है, तो दूसरा दूर खड़ा देख रहा होता है। कोई किसी को सांत्वना देने वाला नहीं, कोई किसी के आँसू पोंछने वाला नहीं। एक प्रकार की आपाधापी, लूट-खसोट, यही तो नरक की विविध आयामों में : स्वरूप दर्शन १८३ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

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