Book Title: Vividh Aayamo Me Swarup Darshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf

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Page 1
________________ विविध आयामों में : स्वरूप-दर्शन चैतन्य का महासागर हमारे अन्तर् में अनन्त-अनन्त काल से हिलोरें मारता चला आ रहा है। चेतना के इस विराट सागर को छोटे से पिण्ड में समाया हुआ देखकर, एक ओर आश्चर्य भी होता है, तो दूसरी ओर उसकी अनन्त शक्ति पर प्रसन्नता भी। चेतना का जो विराट् स्वरूप हमारे भीतर प्रकाशमान है, वही स्वरूप एक चींटी और चींटी से भी असंख्य गुणे छोटे प्राणी के अन्तर् में प्रकाशित हो रहा है। वहाँ भी चैतन्य का वही रूप छिपा हुआ है। महासागर के तट पर जिधर भी नजर उठाकर देखो, उधर ही लहरें मचलती हुई दीखेंगी। यही बात जीवन के महासागर के किनारे खड़े होकर देखने से लगेगी कि चैतन्य के महासागर में चारों ओर से असंख्य-असंख्य लहरें उछल रही है, उसकी कोई सीमा नहीं है, चैतन्य के अनन्त भाव इस महासागर में तरंगित हो रहे हैं। - यह बात नहीं है कि सिर्फ देवता और चक्रवर्ती के जीवन में या मानव के जीवन में ही चेतना की अनन्त धाराएँ प्रस्फुटित होती रहती हैं, बल्कि चींटी और मच्छर जसे क्षुद्र जीवों में भी वही धारा अपने अनन्त-अनन्त रूपों में बहती रहती है, भले ही उनकी अव्यक्त चेतना के कारण हमारी समझ में उनका सही रूप आए या नहीं! किन्तु जीवन के अव्यक्त या कम विकसित होने के कारण चेतना की धाराएँ लुप्त नहीं हो सकती। किसी के जीवन में वे धाराएँ गलत रूप से बह रही होती हैं, तो किसी के जीवन में सही रूप में। देखना यह है कि वे धाराएँ, वे लहरें, जीवन के निर्माण में हाथ बँटा रही हैं, उसे अभ्युत्थान की ओर ले जा रही हैं या विनाश तथा पतन की ओर ! विनाश, पतन और विध्वंस की ओर जो धाराएँ बह रही हैं, उनके वेग को, उनकी दिशा को मोड़ देना, निर्माण की ओर लगाना, यह हमारी व्यक्त चेतना का काम है। चेतन की मूल भावना : दर्शनशास्त्र ने जो चिन्तन, मनन और अनुभव किया है, सत्य का जो साक्षात्कार किया है, उसका निचोड़ यही है कि अन्तर् में सबका मूल चेतन समान है, उसमें कोई भेद नहीं है। जो भेद दिखाई देता है, वह बाहर के रूपों में है, बाहरी धाराओं में है। बाहर में जो गलत धाराएँ, लहरें उछल रही हैं, उन्हें चाहे भावनाएँ कह दीजिए, वृत्तियाँ या आदत कह लीजिए, और भी हजार नाम हो सकते हैं, उनका जो प्रवाह असत् की ओर है, असत रूप में जो वे बह रही हैं, उनका प्रवाह मोड़ देना है और मूल अन्तर् की जो पवित्र शुद्ध धारा है, उसी के प्रवाह में उन्हें भी बदल देना है। प्राणी में मुलतः पाँच वृत्तियाँ पाई जाती हैं, जो उसके भीतर निरन्तर जागृत रहती हैं, हलचल मचाती रहती हैं। चैतन्य जो है, वह एक अन्तर्र-तत्त्व है। वह न कभी जन्म लेता है, न कभी मरता है, न कभी जवान होता है, न कभी बूढ़ा। जब बूढ़ा नहीं होता, पुराना नहीं होता, तो फिर बचपन और नयापन का प्रश्न ही नहीं उठता। मत्यु उसी की होती है, जो जन्म लेता है। और, जो जन्म लेता है, वह मरता भी अवश्य है। इस चेतन ने कभी जन्म धारण नहीं किया, यह सदा जीवित रहता है, इसीलिए इसका नाम जीव है। जीव क्या है ? जो सदा जीवित रहे, जीने की भावना में रहे। विविध आयामों में : स्वरूप दर्शन १७३ Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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