Book Title: Vividh Aayamo Me Swarup Darshan Author(s): Amarmuni Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf View full book textPage 3
________________ अमरता की उपासना : भारतीय दर्शन की अन्तिम परिणति यही है कि तुम अपने स्वरूप को समझ लो, बस यही तुम्हारी साधना है। स्वरूप को जब पहचान लिया कि अमर रहना, यह हमाराचैतन्य का स्वरूप है, तो अमरता की साधना प्रारम्भ हो जाती है। अमर रहने के लिए ही हमारी साधना चलती है, इससे आगे कहूँ तो यह कह सकता हूँ कि जीने के लिए ही हमारी साधना चल रही है । आप कहेंगे कि "क्या इतने छिछले स्तर पर हमारी साधना है ? सिर्फ जीने के लिए ?" मैं पूछू -- “यदि जीने के लिए नहीं है, तो क्या मरने के लिए है ?" जीना और मरना दो ही तो दृष्टियाँ हैं । मरना गलत दृष्टि है, जीना सही दृष्टि है । मरण नहीं, for area जीवन को केन्द्र मानकर ही साधना क्षेत्र की समस्त साधनाएँ चलती हैं । मैं अपने आपको क्यों नहीं मारता ? इसीलिए कि ग्रात्म-हत्या करना पाप है । पाप क्यों है ? पाप यों है, कि वह स्वभाव के विरुद्ध है । अपने को मारना पाप है, तो मतलब यह हुआ कि मृत्यु ही पाप है । कोई अपने आपको 'शूट' कर ले, तो उसने किसी दूसरे की जान तो नहीं लूटी ? फिर आप गुरु से पूछें, तो वे कहेंगे-यदि दूसरे को मारना पाप है, तो अपने को मारना महापाप है । श्रात्म-हत्या करने वाला नरक में जाता है। कानून से पूछो, तो वह कहेगा, यह अपराध है | आत्म हत्या का प्रयत्न करते हुए कोई पकड़ा गया, तो वह अपराधी है, उसे दण्ड मिलता है । कोई जी रहा है, और वह पूछे कि क्या यह जीना भी पाप है ? तो क्या कोई कहेगा कि हाँ, जीना पाप है ? जीना भी पाप है, मरना भी पाप है, तो फिर संसार में धर्म क्या रह गया ? धर्म कहता है कि न तू मर ! न किसी को मार ! बस यही धर्म है । भगवान् महावीर ने अहिंसा का उद्गम भी इसी जिजीविषा के अन्दर से बताया है । दशवकालिक में कहा है- " सवे जीवा वि इच्छन्ति, तम्हा पाणिवहं घोरं जोविजं न मरिज्जिउं । निभ्गंथा वज्जयंति णं ॥ ६, ११. संसार के समस्त प्राणी जीना चाहते हैं, जीने की कामना, इच्छा प्रत्येक प्राणी के भीतर विद्यमान है, मरना कोई नहीं चाहता, इसीलिए किसी का वध करना, मारना, पाप है। मतलब यह है कि 'जीना' यह स्वरूप है और स्वरूप धर्म है । आप देखेंगे कि अहिंसा का स्वर किस भावना से फूटा है ? जीवित रहने की भावना से ही न ! हम प्रत्येक प्राणी के प्रति सहृदय रहते हैं । सहृदय की साधना आखिर क्यों है ? सभी प्राणी एक-दूसरे के प्रति सहृदय रहें । परस्पर सहृदयता, प्रेम, करुणा, सहयोग - ये सब हमारी जीवित रहने की भावना के ही विकसित रूप हैं । उसी महावृक्ष की ये अनेक शाखाएँ हैं । Jain Education International सुख की भावना : दूसरी भावना - सुख की भावना है। हम इस विश्वमंडल की अनन्त अनन्त परिक्रमा कर चुके हैं और कर रहे हैं, लेकिन किसलिए ? सुख के लिए ही तो ! सुख की भावना और कामना से प्रेरित होकर प्रत्येक प्राणी प्रयत्नशील रहता है । निष्कर्ष यह है कि सुख आत्मा का स्वरूप है । स्वरूप की माँग, खोज आत्मा करती है । भगवान् का स्वरूप वर्णन करते हुए बतलाया गया है कि वह प्रानन्दमय है । इसके प्रागे बढ़े तो कह दिया कि वह सच्चिदानन्द रूप है । सद् चिद् और आनन्द, यह एक सर्वोच्च शिखर की बात है। उच्चतम आनन्द की भावना इसके साथ जुड़ी है। इससे यह तो हमने समझ ही लिया कि भगवान् का स्वरूप श्रानन्दमय है, सुखमय है । जो उसका स्वरूप है, वही हमारा स्वरूप है । स्वरूप, उसका और हमारा भिन्न नहीं है । जो भगवान् का स्वरूप है, वह प्रत्येक प्राणी का स्वरूप है । तभी हम कहते हैं कि प्रत्येक घट में भगवान् का वास है । जब तक उस श्रानन्द की उपलब्धि नहीं विविध प्रायामों में : स्वरूप दर्शन For Private & Personal Use Only १७५ www.jainelibrary.org.Page Navigation
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