________________ पूछते—वह कहाँ है ? बस सेठ जल उठता-"जो भी आते हैं, पूछते हैं . . . . . . . . वह कहाँ है। कल का जन्मा छोकरा, आज बन गया सेठ। मुझे कोई पूछता ही नहीं। सेठ तो मैं हूँ, उसका बाप हूँ।" __मैं समझता हूँ, यह पीड़ा, यह मनोव्यथा एक पिता की ही नहीं, आज अनेक पिता और पुत्रों की यही व्यथा है, भाई-भाई की भी यही पीड़ा है। इसी पीड़ा से पति-पत्नी भी कसकते रहते हैं और अड़ोसी-पड़ोसी भी इसी दर्द के मरीज होते हैं। ईर्ष्या और जलन आज राष्ट्रिय बीमारी ही क्या, अन्तर्राष्ट्रिय बीमारी बन गई है। और इसीलिए कोई सुखी एवं शांत नहीं है। __इस बीमारी के उपचार का यही एक मार्ग है कि हम प्रमोद भावना का अभ्यास करें। जहाँ कहीं भी गुण है, विशेषता है, उसे साफ चश्मे से देखें। व्यक्ति, जाति, धर्म, सम्प्रदाय और राष्ट्र का चश्मा उतार कर उसे केवल गुण-दृष्टि से देखें, उसका सही मूल्यांकन करें और गुण का आदर करें! यह निश्चित समझिए कि आप यदि स्वयं आदरसम्मान पाना चाहते है, तो दूसरों को भी आदर और सम्मान दीजिए। अपने गुणों की प्रशंसा चाहते हैं, तो औरों के गुणों की भी प्रशंसा कीजिए! मैत्री एवं प्रमोद भावना का विकास, मन में प्रसन्नता, निर्भयता एवं आनंद का संचार करता है। क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्--तीसरी भावना करुणा है। करुणा मन की कोमल वृत्ति है, दुःखी और पीड़ित प्राणी के प्रति सहज अनुकम्पा, मानवीय संवेदना जग उठती है और हम उसके प्रति सहानुभूति का हाथ बढ़ाते हैं। करुणा मनुष्य की सामाजिकता का मूल आधार है। अहिंसा, सेवा, सहयोग, विनम्रता आदि हजारों रूप इसके हो सकके हैं और उन सबका विकास करना ही जीवन को पूर्णता की ओर ले जाना है। माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ--माध्यस्थ-भावना मन की एक तटस्थ स्थिति है / जीवन, जीवन है। जीवन में कोई किसी का विरोध भी कर सकता है, कोई किसी के प्रतिकूल भी हो सकता है, ऐसी स्थिति में क्षुब्ध न होना माध्यस्थ-भावना है। इसी प्रकार असफलता की स्थिति में मनुष्य का उत्साह निराशा में न बदले, मन उत्पीडित न हो और मोह-क्षोभ के विकल्पों से मन परास्त न हो, यह भी माध्यस्थ-भावना का सुफल है। जीवन को सर्वांग सुन्दर बनाने के लिए उसका सर्वांगीण विकास करना आवश्यक है। जीवन में समस्त सद्गुणों का उद्भव और पल्लवन किए बिना मानवता के मधुरतम फल नहीं प्राप्त हो सकते। किसी भी एक सद्गुण को लेकर और उसके जितने भी स्रोत हैं, जितने भी अंग है, उन सबका विकास करके ही उसमें पूर्णता और समग्रता का निखार पा सकता है। जैन-दर्शन ही क्या, समस्त भारतीय दर्शनों का यह सिद्धान्त है-एक में अनेक और अनेक में एक / किसी भी एक गुण को लेकर उसके अनन्त' गुणों का विकास किया जा सकता है। उदाहरण मैंने आपके समक्ष प्रस्तुत किया है कि अहिंसा का एक गुण ही जीवन के समग्र गुणों का मूल बन सकता है। विनम्रता, मधुरता, कोमलता, मैत्री एवं प्रमोद भावना, करुणा और माध्यस्थवृत्ति ये सब भी अहिंसा के ही अंग है। अहिंसा का संपूर्ण विकास तभी हो पाएगा, जब जीवन में उक्त सद्वृत्तियों का सम्यक् विकास होगा। तभी हमारी साधना, जो सहस्रधारा के रूप में बहती रही है, समग्र साधना बन सकती है और जीवन तथा जगत् के समस्त परिपार्यों को परिप्लावित कर सकती है। विविध प्रायानों में : स्वरूप दर्शन 187 Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org