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भाषाटीकासमेतः। (५१) ओंका परम प्रकाशक है और देहमें रहनेवाला वर्णाश्रम धर्मकर्म रणका और ममताका अभिमान सदा करता है ।। इसलिये देहादिमें जब भ्रमसे आत्मबुद्धि होती है तो आत्मा नानातरहकी उपाधिको प्राप्त होकर संसारको प्राप्त होताहै ॥ १९१॥ योयं विज्ञानमयः प्राणेषु हदि स्फुरत्ययं ज्योतिः।। कूटस्थः सन्नात्मा कर्ता भोक्ता भवत्युपाधिस्थः१९२
जो यह विज्ञानमयकोश प्राणमें और हृदयमें ज्योतिःस्वरूपसे प्रकाशको प्राप्त होता है वही ज्योतीरूप कूटस्थ होनेसे आत्मा कहा जाता है और उपाधियुक्त होनेसे कर्ता भोक्ता होता है ॥ १९२॥ । स्वयं परिच्छेदमुपेत्य बुद्धेस्तादात्म्यदोषेण परं मृषात्मनः । सर्वोत्मकः सन्नपि वीक्षते स्वयं स्वतः पृथक्त्वेन मृदो घटानिव ।। १९३॥
यद्यपि परमात्मा स्वयं सर्वात्मक सर्वस्वरूप है तथापि मिथ्यात्मक बुद्धिके तादात्म्य दोषका प्राप्त होनेसे देहस्थ जीवभावको प्राप्त होकर स्वयं अपनेको अलग देखता है । जैसे मृत्तिकासे अलग घट दीखता है । वास्तविक अलग नहीं है तैसे आत्मा किसीसे अलग नहीं है१९३
उपाधिसम्बन्धवशात्परात्माापाधिधर्माननु भाति तद्गुणः ॥ अयोविकारा न विकारिवह्निवत्सदैकरूपोऽपि परः स्वभावात् ॥ १९४॥
जैसे विकारयुक्त लोहेके संबन्धहोनेसे अग्नि भी विकारयुक्त दीखता है अर्थात् जैसी आकृति लोहेकी होती है तैसीही आकृति लोहके संबन्ध होनेसे अग्निकी भी मालूम होती है परंतु अग्नि तो सदा अपने स्वभावसे एकरूपही रहता है तैसे परमात्मा सदा एकरूप है अनेकप्रकार उपाधिके सम्बन्ध वशसे उपाधिके धर्म और गुणको अनुभव करता हुआ तैसाही मालूम देता है ॥ १९४ ॥