________________
भाषाटीकासमेतः ।
( १४५ )
ब्रह्मज्ञानी यद्यपि निर्धन हैं तौभी सदा संतुष्ट रहते हैं यद्यपि उनका कोई सहायक नहीं रहता तौभी वह महाबलिष्ट ही रहते हैं भोजनभी नहीं करते तोभी सदा तृप्तही रहते हैं यद्यपि वे सबके तुल्य नहीं हैं arit aant अपने समानही दीखते हैं ॥ ५४४ ॥
अपि कुर्वन्त्रकुर्वाणश्चाभोक्ता फलभोग्यपि । शरीर्यप्यशरीष परिच्छिन्नपि सर्वगः ॥ ५४५ ॥
यद्यपि ज्ञानी पुरुष बाह्य कर्मको करते हैं तथापि अपने कुछ नहीं करते यद्यपि अभोक्ता है तोभी फल भोगते हैं शरीरी हैं तथापि अपने को शरीरी नहीं मानते हैं तो परिच्छिन्न पर अपनेको सर्वव्यापकही मानते हैं ५४५ अशरीरं सदा सन्तमिमं ब्रह्मविदं कचित् । प्रियाप्रिये न स्पृशतस्तथैव च शुभाशुभे ॥ ९४६ ॥
ऐसे ब्रह्मज्ञानी यद्यपि सदा वर्तमान है तथापि वह शरीर रहित हैं इसलिये कभी उनको प्रिय चाहे अप्रिय शुभ चाहे अशुभ स्पर्श नहीं करताह५४६ स्थूलादि संबन्धतोऽभिमानिनः सुखं च दुःखं च शुभाशुभ च । विध्वस्तबन्धस्य सदात्मनो मुने कुतः शुभं वाप्यशुभं फलं वा ॥ ५४७ ॥
इस स्थूल देहसे सम्बन्ध करनेवाले जो अभिमानी पुरुष हैं उन्हीको सुख और दुःख शुभ और अशुभ होते हैं जो इस स्थूल देहके बन्धसे मुक्त हुए उनको शुभ अशुभका फल कहांसे होगा ।। ५४७ ॥
तमसा ग्रस्तवद्भानादग्रस्तोपि रविर्जनैः । ग्रस्त इत्युच्यते भ्रान्त्या ह्यज्ञात्वा वस्तुलक्षणम्॥५४८॥ तद्वद्देहादिबन्धेभ्यो विमुक्तं ब्रह्मवित्तमम् । पश्यन्ति देहवन्मूढाः शरीराभासदर्शनात् ॥ ५४९ ॥ जैसे राहु सूर्यको ग्रास नहीं करता किन्तु मनुष्यों की दृष्टिमें भेद उत्पादन करता है इस यथावद्वस्तुको न जानकर मनुष्य सूर्यको ग्रस्त कहते हैं तैसे देह आदि बन्धसे विमुक्त उत्तम ब्रह्मज्ञानीको
१०