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भाषाटीकासमेतः। (१४९) पाषाणवृक्षतृणधान्यकडंगराया दग्धा भवन्ति हि मृदेव यथा तथैव । देहेन्द्रियासुमनआदिसमस्तदृश्यं ज्ञानाग्निदग्धमुपयाति परात्मभावम् ॥५६४॥
जैसे पाषाण, वृक्ष, तृण, धान्य,मुसा ये सब नाश होनेपर मृत्तिका स्वरूप होजाते हैं तैसे देह, इन्द्रिय, प्राण, मन आदि जितने दृश्य पदार्थ है सो सब नाश होनेपर परमात्मस्वरूपहीको प्राप्त होते हैं५६४ विलक्षणं यथा ध्वान्तं लीयते भानुतेजसि । तथैव सकलं दृश्यं ब्रह्मणि प्रविलीयते ॥ ५६५॥ विलक्षण अन्धकार जैसे सूर्यके उदय होनेपर सूर्यहीमें लय होजाता है तैसे सब दृश्य पदार्थ ब्रह्मज्ञान होनेपर ब्रह्महीमें लय होते हैं॥५६॥
वटे नष्टे यथा व्योम व्योमैव भवति स्फुटम् । तथैवोपाधिविलये ब्रह्मैव ब्रह्मवित्स्वयम् ॥ ५६६॥
वटके नाश होनेसे घटका आकाश जैसे महाआकाशस्वरूपही हो जाताहै तैसे उपाधिका नाश होनेसे ब्रह्मज्ञानी ब्रह्मरूपही होजाताहै५६६
श्रीरं भीगे यथा क्षिप्त तैलं तैले जलं जले। संयुक्तमेकतां याति तथात्मन्यात्मविन्मुनिः॥५६७॥
जैसे दूधको दूध में मिलानेसे तेलको तेलमें मिलानेसे जलको जलमें मिलानेसे एकही रूप हो जाता है तैसे ज्ञानी मनुष्य आत्मज्ञान होनेपर आत्मस्वरूपही होजाते हैं ॥ ५६७ ।। एवं विदेहकैवल्यं सन्मात्रत्वमखण्डितम् । ब्रह्मभावं प्रपद्यैष यतिन वर्तते पुनः॥ ५६८ ॥
पूर्व उक्त प्रकारसे देह त्याग होनेपर अखण्ड सत्तामात्र ब्रह्मभावको आप्त होकर यतिलोग फिर इस संसारमें नहीं प्राप्त होते ।। ५६८ ॥ सदात्मैकत्वविज्ञानदग्धाविद्यादिवर्मणः। अमुष्यब्रह्मभूतत्वाद्ब्रह्मणः कुत उद्भवः॥५६९ ॥
आत्मामें एकत्व ज्ञान होनेसे अज्ञानका शरीर जब दग्ध होजाता है तो ब्रह्मज्ञानी ब्रह्मरूपही हो जाता है तो ब्रह्मका फिर उद्भव कैसे होगा५६९