Book Title: Vivek Chudamani Bhasha Tika Samet
Author(s): Chandrashekhar Sharma
Publisher: Chandrashekhar Sharma

View full book text
Previous | Next

Page 127
________________ भाषाटीकासमेतः। ( १२१) मैं ब्रह्म हूं ऐसा विज्ञान होनेसे करोरहूं कल्पके अर्जित और संचितकर्म विलयको प्राप्त होते है जैसे जागनेपर स्वप्नावस्थाका कर्म सब नष्ट होजाता है ॥ ४४८ ॥ यत्कृतं स्वप्नवेलायां पुण्यं वा पापमुल्बणम् । सुप्तोत्थितस्य किं तत्स्यात्स्वर्गाय नरकाय वा४४९॥ जैसे स्वप्नअवस्थामें पुण्य अथवा घोर पाप किया उस पुण्य पापसे जागनेपर न स्वर्ग होता है न नरक होनेकी सम्भावना होती है तैसे पूर्वावस्थाका किया कर्मका फल ब्रह्मात्मैक्यज्ञान दशामें कुछभी नहीं होता ॥ ४४९ ॥ स्वमसङ्गमुदासीनं परिज्ञाय नभो यथा । नश्लिष्यति च यत्किचित्कदाचिद्भाविकर्मभिः४५०॥ जैसे आकाश किसीवस्तुमें आसक्त नहीं है यावत् वस्तुओंमें उदासीन रीतिसे व्याप्त है। तैसे जो मनुष्य अपनेको संगरहित उदासीन जानकर स्थिर है वह मनुष्य कभी किसी भावी कर्मसे लिप्त नहीं होगा ॥ ४५० ॥ न नभो घटयोगेन सुरागन्धेन लिप्यते । तथात्मोपाधियोगेन तद्धमैं नैव लिप्यते ॥ ४५१ ॥ जैसे घटका योग होनेसे आकाश घटस्थमद्यका गन्धसे लिप्त नहीं होता तैसे नाना तरहकी उपाधिके होनेसे आत्मा उपाधिका धर्मसे लिप्त नहीं होता ॥ ४५१ ॥ ज्ञानोदयात्पुरारब्धं कर्मज्ञानान नश्यति । अदत्त्वा स्वफलं लक्ष्यमुदिश्योत्सृष्टबाणवत्४५२॥ ज्ञान होनेके पहिले जो कर्म किया वह कर्म विना अपना फल दिये समान ज्ञानसे नहीं नष्ट होता जैसे किसी एकलक्ष्यपर बाण छोडा जाय हो वह बाण लक्ष्यके मारे विना मध्यमें रुकता नहीं ॥ ४५२ ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158