Book Title: Vishwa Shantiwadi Sammelan aur Jain Parampara Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 3
________________ जैन धर्म और दर्शन गाँधीजी की अहिंसा . . गाँधीजी जन्म से ही भारतीय अहिंसक संस्कार वाले ही रहे हैं। प्राणिमात्र के प्रति उनकी अहिंसा व अनुकंपा वृत्ति का स्रोत सदा बहता रहा है, जिसके अनेक उदाहरण उनके जीवन में भरे पड़े हैं। गोरक्षा और अन्य पशु-पक्षियों की रक्षा की उनकी हिमायत तो इतनी प्रकट है कि जो किसी से छिपी नहीं है । परन्तु सबका ध्यान खींचनेवाला उनका अहिंसा का प्रयोग दुनिया में अजोड़ गिनी जानेवाली राजसत्ता के सामने बड़े पैमाने पर प्रशस्त्र प्रतिकार या सत्याग्रह का है । इस प्रयोग ने पुरानी सभी प्राच्य-पाश्चात्य अहिंसक परम्पराओं में जान डाल दी है, क्योंकि इसमें प्रात्मशुद्धिपूर्वक सबके प्रति न्याय्य व्यवहार करने का दृढ़ संकल्प है और दूसरी तरफ से अन्य के अन्याय के प्रति न झुकते हुए उसका अशस्त्र प्रतिकार करने का प्रबल व सर्वक्षेमंकर पुरुषार्थ है । यही कारण है कि आज का कोई भी सच्चा अहिंसावादी या शांतिवादी गाँधीजी की प्रेरणा की अवगणना कर नहीं सकता। इसी से हम विश्व शांतिवादी सम्मेलन के पीछे भी गाँधीजी का अनोखा व्यक्तित्व पाते हैं। निवृत्ति-प्रवृत्ति जैन कुल में जन्म लेनेवाले बच्चों में कुछ ऐसे सुसंस्कार मातृ-स्तन्यपान के साथ बीजरूप में आते हैं जो पीछे से अनेक प्रयत्नों के द्वारा भी दुर्लभ हैं। उदाहरणार्थ-निर्मास भोजन, मद्य जैसी नसीली चीजों के प्रति घृणा, किसी को न सताने की तथा किसी के प्राण न लेने की मनोवृत्ति तथा केवल असहाय मनुष्य को ही नहीं बल्कि प्राणिमात्र को संभवित सहायता पहुँचाने की वृत्ति । जन्मजात जैन व्यक्ति में उक्त संस्कार स्वतःसिद्ध होते हुए भी उनकी प्रच्छन्न शक्ति का भान सामान्य रूप से खुद जैनों में भी कम पाया जाता है, जबकि ऐसे ही संस्कारों की भित्ति पर महावीर, बुद्ध, क्राईस्ट और गाँधीजी जैसों के लोककल्याणकारी जीवन का विकास हुआ देखा जाता है । इसलिये हम जैनों को अपने विरासती सुसंस्कारों को पहिचानने की दृष्टि का विकास करना सबसे पहले श्रावश्यक है जो ऐसे सम्मेलन के अवसर पर अनायास सम्भव है। अनेक लोग संन्यास-प्रधान होने के कारण जैन परम्परा को केवल निवृत्ति-मार्गी समझते हैं और कम समझदार खुद जैन भी अपनी धर्म परम्परा को निवृत्तिमार्गी मानने मनवाने में गौरव लेते हैं। इससे प्रत्येक नई जैन पीढ़ी के मन में एक ऐसा अकर्मण्यता का संस्कार जाने अनजाने पड़ता है जो उसके जन्मसिद्ध अनेक सुसंस्कारों के विकास में बाधक बनता है। इसलिए प्रस्तुत मौके पर यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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