Book Title: Vishwa Shantiwadi Sammelan aur Jain Parampara
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 12
________________ लोकहित की दृष्टि ५१६ मूलक नव कृतियों भी रची हैं जो अन्यत्र दुर्लभ हैं और मौलिक गिनी जाने लायक हैं तथा जो विश्वसाहित्य के संग्रह में स्थान पाने योग्य हैं। ज्ञानभाण्डारी में से ऐसे ग्रंथ मिले हैं जो बौद्ध आदि अन्य परंपरा के हैं और आज दुनियाँ के किसी भी भाग में मूलस्वरूप में अभी तक उपलब्ध भी नहीं हैं। ज्ञानभाण्डारों का यह जीवनदायी कार्य केवल धर्म को निवृत्ति बाजू से सिद्ध हो नहीं सकता । यों तो भारत में अनेक कलापूर्ण धर्मस्थान है, पर चामुण्डराय प्रतिष्ठित गोमटेश्वर की मूर्ति की भव्यता व विमल शाह तथा वस्तुपाल श्रादि के मन्दिरों के शिल्प स्थापत्य ऐसे अनोखे हैं कि जिन पर हर कोई मुग्ध हो जाता है | जिनके हृदय में धार्मिक भावना की विधायक सौन्दर्य की बाजू का आदरपूर्ण स्थान न हो, जो साहित्य व कला का धर्मपोषक मर्म न जानते हों वे अपने धन के खजाने इस बाजू में खर्च कर नहीं सकते । व्यापक लोकहित की दृष्टि __पहले से अाज तक में अनेक जैन गृहस्थों ने केवल अपने धर्म समाज के हित के लिए ही नहीं बल्कि साधारण जन समाज के हित की दृष्टि से प्राध्यात्मिक ऐसे कार्य किए हैं, जो व्यावहारिक धर्म के समर्थक और आध्यात्मिकता के पोषक होकर सामाजिकता के सूचक भी हैं । यारोग्यालय, भोजनालय, शिक्षणालय, वाचनालय, अनाथालय जैसी संस्थाएँ ऐसे कार्यों में गिने जाने योग्य है । ऊपर जो हमने प्रवर्तक धर्म की बाजू का संक्षेप में वर्णन किया है, वह केवल इतना ही सूचन करने के लिए कि जैन धर्म जो एक आध्यात्मिक धर्म व मोक्षवादी धर्म है वह यदि धार्मिक प्रवृत्तियों का विस्तार न करता और ऐसी प्रवृत्तियों से उदासीन रहता तो न सामाजिक धर्म बन सकता, न सामाजिक धर्म रूप से जीवित रह सकता और न क्रियाशील लोक समाज के बीच गौरव का स्थान पा सकता। ऊपर के वर्णन का यह बिलकुल उद्देश्य नहीं है कि अतीत गौरव की गाथा गाकर श्रात्मप्रशंसा के मिथ्या भ्रम का हम पोषण करें और देशकालानुरूप नए-नए आवश्यक कर्तव्यों से मुंह मोड़ें। हमारा स्पष्ट उद्देश्य तो यही है कि पुरानी व नई पीढ़ी को हजारों वर्ष के विरासती सुसंस्कार की याद दिलाकर उनमें कर्त्तव्य की भावना प्रदीप्त करें तथा महात्माजी के सेवाकार्यों की ओर आकृष्ट करें। गांधीजी की सूझ जैन परम्परा पहले ही से अहिंसा धर्म का अत्यन्त आग्रह रखती आई है। पर सामाजिक धर्म के नाते देश तथा सामाज के नानाविध उत्थान-पतनों में जबजब शस्त्र धारण करने का प्रसंग आया तब तब उसने उससे भी मुँह न मोड़ा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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