Book Title: Vishwa Shantiwadi Sammelan aur Jain Parampara Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 5
________________ ५१२ जैन धर्म और दर्शन आदेश का कोई भी अर्थ नहीं रहता और प्रवृत्ति न करना इतना मात्र कहा जाता । # दूसरी बात यह है कि शास्त्र में गुप्ति और समिति - ऐसे धर्म के दो मार्ग हैं । दोनों मार्गों पर बिना चले धर्म की पूर्णता कभी सिद्ध नहीं हो सकती । गुप्ति का मतलब है दोषों से मन, वचन, काया को विरत रखना और समिति का मतलब है विवेक से स्वपरहितावह सत्प्रवृत्ति को करते रहना । सत्प्रवृत्ति बनाए रखने की दृष्टि से जो सत्प्रवृत्ति या दोष के त्याग पर अत्यधिक भार दिया गया है उसीको कम समझवाले लोगों ने पूर्ण मानकर ऐसा समझ लिया कि दोष निवृत्ति से आगे फिर विशेष कर्त्तव्य नहीं रहता । जैन सिद्धान्त के अनुसार तो सच बात यह फलित होती है कि जैसे-जैसे साधना में दोष निवृत्ति होती और बढ़ती जाए वैसे-वैसे सत्पवृत्ति की बाजू विकसित होती जानी चाहिए । जैसे दोष निवृत्ति के सिवाय सत्प्रवृत्ति असम्भव है वैसे ही सत्प्रवृत्ति की गति के सिवाय दोष निवृत्ति की स्थिरता टिकना भी असम्भव है । यही कारण है कि जैन परम्परा में जितने आदर्श पुरुष तीर्थंकर रूप से माने गये हैं उन सभी ने अपना समग्र पुरुषार्थं श्रात्मशुद्धि करने के बाद सत्प्रवृत्ति में हो लगाया है । इसलिये हम जैन अपने को जब निवृत्तिगामी कहें तब इतना ही अर्थ समझ लेना चाहिए कि निवृत्ति यह तो हमारी यथार्थ प्रवृत्तिगामी धार्मिक जीवन की प्राथमिक तैयारी मात्र है । मानस शास्त्र की दृष्टि से विचार करें तो भी ऊपर की बात का ही समर्थन होता है । शरीर से भी मन और मन से भी चेतना विशेष शक्तिशाली या गतिशील है | हम देखें कि अगर शरीर और मन की गति दोषों से रुकी, चेतना का सामर्थ्य दोषों की ओर गति करने से रुका, तो उनकी गति-दिशा कौन सी रहेगी ? वह सामर्थ्य कभी निष्क्रिय या गति शून्य तो रहेगा ही नहीं। अगर उस सदास्फुरत् सामर्थ्य को किसी महान् उद्देश्य की साधना में लगाया न जाए तो फिर * यद्यपि शास्त्रीय शब्दों का स्थूल अर्थ साधु-जीवन का आहार, विहार, निहार सम्बन्धी चर्या तक ही सीमित जान पड़ता है पर इसका तात्पर्य जीवन के सब क्षेत्रों की सब प्रवृत्तियों में यतना लागू करने का है । अगर ऐसा तात्पर्य न हो, तो यतना की व्याप्ति इतनी कम हो जाती है कि फिर वह यतना हिंसा सिद्धान्त की समर्थ बाजू बन नहीं सकती । समिति शब्द का तात्पर्य भी जीवन की सब प्रवृत्तियों से है, न कि शब्दों में गिनाई हुई केवल आहार विहार निहार जैसी प्रवृत्तियों में । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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