Book Title: Vishwa Shantiwadi Sammelan aur Jain Parampara Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 2
________________ जैन अहिंसा ५०६ विस्तार होता गया, भिन्न-भिन्न देशों के साथ निकट और दूर का सम्बन्ध जुड़ता गया, सामाजिक और राजकीय जवाबदेही के बढ़ते जाने से उसमें से फलित होनेवाली समस्याओं को हल करने का सवाल पेचीदा होता गया, वैसे-वैसे शांतिवादी मनोवृत्ति भी विकसित होती चली । शुरू में जहाँ वर्ग-युद्ध (Class War), नागरिक युद्ध (Civil War ) अर्थात् स्वदेश के अन्तर्गत किसी भी लड़ाईझगड़े में सशस्त्र भाग न लेने की मनोवृत्ति थी वहाँ क्रमशः अन्तर्राष्ट्रीय युद्ध तक में किसी भी तरह से सशस्त्र भाग न लेने की मनोवृत्ति स्थिर हुई । इतना ही नहीं बल्कि यह भी भाव स्थिर हुआ कि सम्भवित सभी शान्तिपूर्ण उपायों से युद्ध को टालने का प्रयत्न किया जाय और सामाजिक, राजकीय व आर्थिक क्षेत्रों में भी वैषम्य निवारक शान्तिवादी प्रयत्न किये जाएँ। उसी अन्तिम विकसित मनोवृत्ति का सूचक Pacifism ( शांतिवाद) शब्द लगभग १६०५ से प्रसिद्ध रूप में अस्तित्व में आया ।' गाँधीजी के अहिंसक पुरुषार्थ के बाद तो Pacifisin शब्द का अर्थ और भी व्यापक व उन्नत हुआ है। आज तो Pacifism शब्द के द्वारा हम 'हरेक प्रकार के अन्याय का निवारण करने के लिए बड़ी से बड़ी किसी भी शक्ति का सामना करने का सक्रिय अदम्य आत्मबल' यह श्रर्थ समझते हैं, जो विश्व शांतिवादी सम्मेलन (World Pacifist Meeting) की भूमिका है। जैन अहिंसा जैन परम्परा के जन्म के साथ ही अहिंसा को और तन्मूलक अपरिग्रह की भावना जुड़ी हुई है। जैसे-जैसे इस परम्परा का विकास तथा विस्तार होता गया वैसे-वैसे उस भावना का भी भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में नाना प्रकार का उपयोग व प्रयोग हुआ है। परन्तु जैन परम्परा की अहिंसक भावना, अन्य कतिपय मारतीय धर्म परम्पराओं की तरह, यावत् प्राणिमात्र को अहिंसा व रक्षा में चरितार्थ होती आयी है, केवल मानव समाज तक कभी सीमित नहीं रही है। क्रिश्चियन गृहस्थों में अनेक व्यक्ति या अनेक छोटे-मोटे दल समय-समय पर ऐसे हुए हैं जिन्होंने युद्ध को उग्रतम परिस्थिति में भी उसमें भाग लेने का विरोध मरणान्त कष्ट सहन करके भी किया है जबकि जैन गृहस्थों की स्थिति इससे निराली रही है । हमें जैन इतिहास में ऐसा कोई स्पष्ट उदाहरण नहीं मिलता जिसमें देश रक्षा के संकटपूर्ण क्षणों में आनेवाली सशस्त्र युद्ध तक की जवाबदेही टालने का या उसका विरोध करने का प्रयत्न किसी भी समझदार जवाबदेह जैन गृहस्थ ने किया हो। 1. Encyclopaedia of Religion (Ed. V. Ferm, 1945,) p. 555. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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