Book Title: Vidyaratna Mahanidhi
Author(s): Bhadraguptasuri,
Publisher: Mahavir Granthmala
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विद्यारत्न
चतुर्थोऽ धिकारः४
महानिधी
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इदमेवाक्षरलक्ष-वारं रक्त प्रसुनकैः । जप्तं करोति जन्तूनां, वश्याकृष्टिमहोदयम् ॥ २२॥ भाषा-रक्त कणेरके फुलोंसे एक लक्ष जाप करे तो महावश्याकर्षणको करताहै जिससे महोदय होताहै.
इद्रमेवा क्षरं लक्ष-वारं जाती प्रसूनकै । जाड्यं हरति जन्तूनां, जप्तं सद्ज्ञान मुद्रया ॥२३॥ भाषा-चमेलीके फुलोंसे एकलक्ष ज्ञानमुद्रासे जाप करतो अज्ञानताका नाश होताहै बुद्धि बढतीहै महाकवि होताहै.
गजा गोयोषितः क्षुद्र, जन्तवोयान्तिवश्यताम् । एतद्बीज प्रभावेन, साधकानामसंशयम् ॥ २४ ॥
विद्वद्वादिमहेभानां, स्तंभकुंभविदारणे । एतदेव परं बीजं, कंठीरवपदायते ॥२५॥ भाषा-हाथी, सांढ क्षुद्र जन्तु इस बीजमंत्रके प्रभावसे वश होतेहै, विद्वानरूप हाथीके कुंभविदारण करनेमे बीज मंत्रके प्रभावसे सिंह सदृश होताहै. [मांत्रीक ]
ॐ हीं देवि नमः तुभ्य-मंभोरुह निभानने । नमनभश्वरीमौली, मानिक्यरुणितंक्रमे ॥ २६ ॥ भाषा-यह मंत्ररुप श्लोक है.
लक्षत्रयप्रजापेन, जातीपुष्पैः प्रसिध्यति । सरस्वतीमहादेवी, दिव्याकमलवासिनी ॥२७॥ गद्यपद्य मयीवाणी, गंगानीरानुकारिणी । निर्यातिसततं तस्मात् , यस्यतुष्टा सरस्वती ॥२८॥
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