Book Title: Vidyaratna Mahanidhi
Author(s): Bhadraguptasuri,
Publisher: Mahavir Granthmala
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चतुर्थोऽ
विद्यारत्नमहानिधी
धिकार:४
ॐ ही लाह्वापलक्ष्मीच, हंसस्वाहा च विन्यसेत् । विश्वोपकारिणीविद्या मेतां तत्वविदोविदुः ॥१६॥ सहस्रं दशकं जाती, पुष्पैः पूर्व प्रजप्यते । हूयते तु दशांशेन, पश्चाद्विद्या प्रसिध्यति ॥१७॥
भाषा-मंत्रोद्धार ॐ हीं लाहापलक्ष्मीहंसवाहा. ताजे चमेलीके फुलोंसे १०००० जाप करके दशांश आहुति करे तो यहविद्या सिद्ध होतीहै जिसे मंत्रवादी विश्वोपकारिणी महाविद्या कहतेहै.
आज्ञामात्रेण संसिद्धा, करोत्येषा शरीरिणाम् । जङ्गमे स्थावरे वापि, विषेवीर्यविनाशनम् ॥१८॥ भाषा-विद्यासिद्ध होनेपर आज्ञामात्रसे देहधारीका जंगमस्थावर विष नष्ट करताहै.
एतद्विद्यात्रयं भव्य, जीवोपकृतिहेतवे । मयागममहाम्भोधि-मध्यादुधृत्यदर्शितम् ॥१९॥
मिथ्यादृशानदातव्यं, दातव्यं सुदृशांपुनः । दातव्यं योग्य जीवाना--मयोग्यान न दापयेत् ॥ २०॥ भाषा-यह तीन विद्याओंको भव्यजिवोंके उपकारके लिये आगम समुद्रका मंथन करके उद्धार कियाहै. यहविद्या मिथ्या दृष्टिको न देना सम्यक् दृष्टि योग्यपुरुषको देना चाहिये.
षान्त ककार संयुक्तं, लकारं सान्त संयुत्तम् । रेफस्वर कलाक्रान्तं, विन्दुपेतं महाक्षरम् ॥२१॥
भाषा-पान्त-स, क कारकेसाथ, लकार-ल, सान्त-ह, लफारहकारके सहितमीलाना, रेफस्वर, कलाक्रांत करके विन्दुदेना (सक्ती ) ऐसा अक्षर बनें इसे महाक्षर कहतेहै.
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