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राजस्थानी भाषा और साहित्य के विकास एवं उन्नयन में प्रायः सभी वर्गों का थोड़ाबहुत सहयोग रहा है किन्तु इस क्षेत्र में प्रमुख कार्य चारणों, जैन साधुओं, यतियों, क्षत्रियों, रावों, मोतीसरों और ढ़ाढ़ीयों द्वारा सम्पन्न हुआ है । अब तक ढ़ाढ़ीयों द्वारा रचित साहित्य को विशेष महत्व नहीं दिया गया, इसका मुख्य कारण जातिगत द्वेष और रूढिनय विचारों से ढाढ़ीयों को निम्न कोटि का समझा जाना है । भारतीय स्वाधीनता के उपरान्त ऐसे विचारों का स्वतः उन्मूलन हो जाता है । अब सभी वर्गों के साहित्य का अनुसंधान, सम्पादन औ प्रकाशन होना चाहिये तथा साहित्यिक क्षेत्र में सत्रको समान रूप में प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
"वीरवांण" का कर्ता बादर अर्थात् बहादुर ढाढ़ी था जैसा कि काव्य से प्रकट होता है । राजस्थान के सुप्रसिद्ध विद्वान स्व० पं० रामकरणजी आसोया ने “वीरवाण" के कर्ता का नाम “रामचन्द्र" बताया है किन्तु बिना ठोस प्रमाणों के यह स्वीकार नहीं किया जा सकता। यह अनिवार्य नहीं है कि साहित्य रचना का कार्य कोई विशेष वर्ग ही कर सकता है । हमारी वर्गगत उपेक्षा के कारण पता नहीं तथाकथित साहित्यकारों की कितनी रचनाएं नष्ट हो चुकी हैं और कितनी रचनाएं अभी अन्धकार में पड़ी हैं ?
___ चारणों की साहित्य-सेवा तो सर्व प्रसिद्ध है ही किन्तु कविरावों, मोतीसरों, नगारचियों और ढाढ़यों का कार्य भी वीरों को काव्यमयी वाणी से प्रोत्साहित करना और अपने आश्रयदाताओं का यश-वर्णन करना रहा है । मांगलिक अवसरों त्यौहारों और युद्धों में सुयश का. काव्यात्मक वर्णन प्रायः उपरोक्त श्रेणी के साहित्यकारों द्वारा ही होता रहा है। आज भी . राजस्थान में यह शुभ परम्परा किसी न किसी प्रकार से प्रचलित है।
..: ढ़ाढ़ी दमानियों और नगारचियों की श्रेणी में लिये जाते हैं तथा सारंगी अथवा सारंगी के प्रकार का एक वाद्य रबाब बजाते हैं । २ कृष्ण जन्माष्टमी के दूसरे दिन दधिमहोत्सव अथवा नन्द महोत्सव पर वैष्णव मन्दिरों में ढाढ़ी-ढाढिन का स्वांग बनाकर लोग नाचते हैं जिससे ढाढ़ियों की प्राचीनता की जानकारी मिलती है। ढाढ़ी नीचे दिया हुआ पद्य कह कर र म जन्म के समय अपनी दिद्य मानता सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं-- . . दशरथ रे घर जनमियां, हंस ढादिन मुख बोली।
अठारा करोड़ ले चौक सेलिया, काम करन को छोरी ।। मध्यकाल में मुसलमान शासकों के दवाव से कई जातियों के लोग मुसलमान हो गये थे । “वीरवाण" ग्रन्थ का कर्ता बहादुर भो मुसलमान ढ़ाढ़ी था और इसके अश्रय दाता जोईया भी मुसलमान थे।
बादर ढाढ़ी ने मुसलमान होते हुए भी अपने प्राश्रय दाता की उदारता से प्रेरित होकर शत्रु पक्ष के राठौड़ वीर वीरमजी का यश वर्णन भारतीय संस्कृति के अनुरूप किया है। -- १. राजरूपक नागरी प्रचारिणी सभा, काशी द्वारा प्रकाशित, भूमिका पृष्ठ २०
. २. मुर्दम सुमारी रिपोर्ट रान मारबाड़, सन् १८१५ पृ. ३६८ ! .. .
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