Book Title: Vallabhiya Laghukruti Samucchaya
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Rander Road Jain Sangh

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Page 4
________________ प्रकाशकीय प्रसंग एक दिवसनो छे. अमो श्रीसंङ्घना आगेवानो साथे मळी पर्दूषण बाद पू. गुरुभगवन्तने वंदन करवा गया. चालु वर्षे थयेली श्रीसङ्घनी आराधना तेमज पूज्यश्रीनी पधरामणीने अनुलक्षीने कोईक अविस्मरणीय आयोजन नक्की करवू हतुं. गुरुभगवंत पासे गया त्यारे तेओ कोईक ग्रंथनी मेटर वांची रह्या हता. सहज जिज्ञासाथी ज हाल कया ग्रन्थ- प्रकाशन चाले छे ? ते अंगे पूछ्युं । खरतरगच्छना एक समर्थविद्वान प.पू.उपाध्याय श्रीवल्लभजीनी लघुकृतिओना समुच्चनुं कार्य महो.विनयसागरजी तथा डो. नारायणशास्त्रीजी करी रह्या छे ते समुच्चयनुं पुस्तक रूपे प्रकाशन थवानुं छे ते जाणवा मळ्युं. अन्यगच्छना विद्वान गुरुभगवंतोनी रचना प्रकाशित करवानुं कार्य अन्यगच्छना गुरुभगवंतो करे ते अंगे मनमा शंका थई. अमारा मननां भावोने जाणे के समजी गया होय तेम गुरुभगवंते तुरंत ते समुच्चयनी प्रस्तावनामांथी तपागच्छीय विजयदेवसूरीश्वरजी म.सा.ना जीवनचरित्रना एक श्लोकनो अनुवाद वंचाव्यो. आश्चर्य साथे अहोभाव आंखमां तरवरवा लाग्यो. तपागच्छीय आचार्यनी प्रभावकता मानसपट पर छवाई गई. केवा ए समर्थ पू.विजयदेवसूरिजी म.सा. हशे के जेमना गुणोनुं गान एक अन्य गच्छना विद्वान गुरुभगवंत करे छे ? साथे ए विद्वान पण केवा गुणानुरागी हशे के जेओ अन्य कोईपण आशंका लाव्या विना पोतानी मस्तिमां ज आवी उत्तम रचना करे छे. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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