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भूमिका
| भूमिका ।
श्रमण संस्कृति में कठोरतम साधुचर्या का पालन करते हुए श्रमण/ साधुगण निरन्तर और नियमित रूप से अट्ठारह घण्टे अर्थात् ६ प्रहर स्वाध्याय और चिन्तन में व्यतीत किया करते थे। क्रमश: यह परम्परा मतिमान्द्य कहो, प्रमाद कहो या एकरूपता कहो, इसमें शनैः-शनैः परिवर्तन होता गया। प्रारम्भ में भगवान् महावीर द्वारा प्ररूपित अविसंवादी वाणी को समयानुसार स्पष्ट करने के लिए आचार्यगणों ने चूर्णि, नियुक्ति, भाष्य और टीका आदि का निर्माण किया। क्रमश: यह परम्परा प्रज्ञापना, न्यायदर्शन, सूत्र रूप में रचना, टीका ग्रन्थों की रचना और मौलिक ग्रन्थों के निर्माण के रूप में यह परम्परा विकसित होती रही। कथा-साहित्य, भगवद् भक्ति स्वरूप स्तोत्र साहित्य का निर्माण भी होता रहा। इस परम्परा के उन्नायक आचार्यों में भद्रबाहु, जिनदासगणि महत्तर, श्यामाचार्य, सङ्घदासगणि महत्तर, आचार्य सिद्धसेन, उमास्वाति, आचार्य हरिभद्र, शिलाङ्काचार्य, बप्पभट्टिसूरि, जिनेश्वरसूरि, आचार्य अभयदेव, जिनवल्लभसूरि, देवभद्रसूरि, हेमचन्द्रसूरि, मलयगिरि, जिनपतिसूरि, देवेन्द्रसूरि, क्षेमकीर्ति और यशोविजयोपाध्याय आदि समर्थ आचार्य हुए, जिनके ग्रन्थ आज भी आपके रूप में स्वीकार किए जाते हैं।
इसी परम्परा में उपाध्याय श्रीवल्लभ की गणना भी की जा सकती है, जिन्होंने मौलिक ग्रन्थों के निर्माण के साथ टीका ग्रन्थों में - आचार्य हेमचन्द्र प्रणीत लिङ्गानुशासन, कोश आदि साहित्य का निर्माण तत्कालीन उपलब्ध साहित्य का अवलोकन कर अपनी श्रेष्ठ प्रतिभा और प्रज्ञा के बल पर निर्माण किया। इनके ग्रन्थ अनेकार्थी कोषों पर अधिक निर्भर थे और यह कवि साम्प्रदायिक परम्पराओं से रिक्त भी रहा। इसीलिए इनका साहित्य विशुद्ध साहित्य रहा और सबके लिए अनुकरणीय भी रहा।
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