Book Title: Upasak Dashang Ek Anushilan
Author(s): Sushila Bohra
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 4
________________ 188 जिनवाणी- जैनागम- साहित्य विशेषाङ्क में इन्द्र ने की, तब एक देव उनकी परीक्षा लेने के लिए एक रात्रि को उनके पास आया तथा उसने नंगी तलवार लेकर धर्म से विचलित करने का प्रयास किया। फिर विशालाकार हाथी और विषैले सर्प का रूप धारण कर मारणान्तिक कष्ट देने लगा। लेकिन कामदेव जी जरा भी विचलित नहीं हुए। अंत में देव हार मान गया और अपना दिव्य स्वरूप प्रकट करते हुए उनसे क्षमायाचना की। कामदेवजी ने श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का अनुक्रम से पालन किया। इस प्रकार २० वर्षों तक श्रावक धर्म की मर्यादा कर यथावत् पालन करते हुए अंत में एक माह का संलेखना संथारा कर आयुष्य पूर्ण कर सौधर्म कल्प के अरुणाभ विमान में देव रूप में उत्पन्न हुए। वहाँ चार पल्योपम की स्थिति पूर्णकर वे महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होंगे। ( 3 ) चुलनीपिता श्रमणोपासक वाराणसी नगरी में चुलनीपिता नामक धनाढ्य गाथापति अपनी पत्नी श्यामा के साथ रहता था। उसके पास ८ करोड़ धन निधान के रूप में, ८ करोड़ घर-बिखरी में तथा ८ करोड़ व्यापार में लगा हुआ था और ८० हजार गायें थी। भगवान महावीर की वाणी सुनकर उन्होंने श्रावक व्रत अंगीकार किया तथा कालान्तर में पौषधशाला में ब्रह्मचर्ययुक्त पौषध करते हुए भगवान द्वारा फरमाई गई धर्मप्रज्ञप्ति को स्वीकार कर आत्मा को भावित करने लगे। एक दिन अर्द्धरात्रि के समय कामदेव की भांति उनकी परीक्षा लेने हेतु एक देव आया एवं बोला- 'यदि तू व्रत भंग नहीं करेगा तो तेरे पुत्र को मारकर उसके मांस को उबलते हुए तेल के कड़ाह में तल कर उस मांस एवं रक्त को तेरे शरीर पर सिंचन करूंगा, जिससे तू आर्त्तध्यान करता हुआ मृत्यु को प्राप्त करेगा।' चुलनीपिता नहीं डरे । उसने वैसा ही किया, लेकिन वे व्रत में स्थिर रहे। इसी तरह दूसरे एवं तीसरे पुत्र का भी किया, फिर भी वे विचलित नहीं हुए। अंत में देव ने माँ को इसी प्रकार मार डालने का डर दिखाया। प्रथम बार कहने पर निर्भय रहे, दूसरी, तीसरी बार कहने पर वे विचलित हो गये और ललकारते हुए पकड़ने के लिए उद्यत हुए तो वह देव आकाश में उड़ गया और खम्भा हाथ में आया। कोलाहल सुनकर माना भद्रा उनके समीप आयी। उन्होंने कहा कि मिथ्यात्वी देव के कारण तुमने यह दृश्य देखा है जिससे तेरा व्रत खंडित हो गया है, अतएव आलोयणा करके तप प्रायश्चित्त कर। उन्होंने ऐसा ही किया। अंत में आनन्द श्रावक की तरह २० वर्ष श्रावक धर्म का पालन कर, ११ प्रतिमाओं का आराधन कर प्रथम देवलोक के सौधर्म कल्प के अरुणप्रभ नामक विमान में उत्पन्न हुए। वहां चार पल्योपम की आयु पूर्ण कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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