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उपासकदशांग : एक अनुशीलन
श्रीमती सुशीला बोहवा उपासकटशां" सूत्र में भगवान महावीर के आनन्द, कदेव आदि प्रमुख १० श्रमगोपासकों के जीवन-चरित्र का निरूपण है। सभी श्रावकों ने भगवान महावीर में उपदेश---श्रवणकर १२ व्रत अंगीकार करते हए अपने जीवन को धर्म-साधना में समर्पित का दिया भावद तन्नों में उनकी दृढ श्रद्धा थी तथा गेडो की धन मागदा होते हुए भी उन्होंने त्यागमय जीवन की ओर से कदम बढ़ाए कि वे देवों द्वारा दिए गए उपसर्गों से भी विचलित नहीं हुए श्री स्थानकवासी जैन स्वाभ्याय संभ की संयोजिका श्रीमती सुशीला जी बोहर ने उपासकदशांग सू की विशेषताओं को अपने आलेख में उभारने का प्रयत्न किया है :
-सम्पादक
तीर्थकरों द्वारा उपटिष्ट एवं गणधरों द्वारा सूत्र रूप में प्रस्तुत द्वादशागी वाणी हमको आगम प्रसादी के रूप में प्राप्त हुई है। इसके माध्यम से भव्य जीवों को संसार सागर से पार होने के लिए द्रव्यानुयोग, चरणानुयोग, गणितानुयोग एवं धर्मकथानुयोग विविध रूप में समझाया गया है। जिस प्रकार माता-पिता अपने बच्चों को उत्थान हेतु विविध प्रकार से समझाते हैं उसी प्रकार प्रभु महावीर ने भव्य जीवों को जन्म-मरण के चक्र से बचाने हेतु कई प्रकार से समझाया है।
उपासकदशांग सूत्र धर्मकथानुयोग के रूप में प्रस्तुत हुआ। यह अंगसूत्रों में एकमात्र ऐसा सूत्र है जिसमें सम्पूर्णतया श्रमणोपासक या श्रावक जीवन की चर्या है।
जैन दर्शन में साधना की दृष्टि से धर्म को अनगार और आगार धर्म दो रूपों में प्रस्तुत किया गया है। अनगार धर्म में सभी पाप प्रवृत्तियों का तीन करण और तीन योग से त्याग तथा अहिंसादि पांच महाव्रत का पालन आवश्यक बताया है। इसमें किसी प्रकार की छूट (आगार) नहीं होती। महाव्रतों की साधना तलवार की तीक्ष्ण धार पर चलने के समकक्ष है, जिसे सामान्य व्यक्ति अंगीकार नहीं कर पाता। आगार सहित व्रतों का पालन करने वालः अणुव्रतो या श्रमणोपासक कहलाता है। उपासक का शाब्दिक अर्थ है : उप-समीप बैठने वाला जो श्रमण के समीप बैठकर उनसे सद्ज्ञान ग्रहण कर साधन को अर अग्रसर होता है वह श्रमणोपासक कहलाता है। उपासकदशा में ऐसे ही आनन्द, कामदेव आदि १० उपासकों का वर्णन है जिन्होंने प्रभु महावीर के उपदेशों से प्रेरित हो अपना जीवन सार्थक कर लिया।
उपासकदशांग में वर्णित सभी श्रावक प्रतिष्ठित, समृद्धिशाली एवं वद्धिमान थे उनका जीवन अनुशासित, व्यवस्थित एवं धर्मनिष्ठ था! गृहस्थ जोबन में रहते हुए पानी में कमलवन कैसे रहा जा सकता है, उसका
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... जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क सांगोपांग वर्णन इस अंग में उपलब्ध है। काम-भोग में आसक्त रेवती की भोगलिप्सा के वर्णन से बताया गया है कि जन साधारण को विषय-वासना का फल कितना दु:खदायी होता है। इसके चित्रण द्वारा नियमित संयमित जीवन जीने की प्रेरणा दी गई है। श्री आनन्द जी की स्पाटवादिता, कामदेव को दृढ़ता. अडिगता और सहनशीलना, कुण्डकौलिक की सैद्धान्तिक पटुता, सकड़ालपुत्र की मिथ्यात्वी देव-गुरु-र्ग के प्रति निस्पृहता आदि गुण अनुमोदनीय ही नहीं अनुकरणीय भी हैं।
सभी श्रमणोपासक धन-वैभव, मान-प्रतिष्ठा और अन्य सभी प्रकार की पौद्गलिक सम्पदा से सम्पन्न एवं सुखी थे, लेकिन भगवान महावीर के उपदेशों का श्रवण करने से उनकी दिशा एवं दशा दोनों बदल गई। वे सभी पुद्गलानन्दी से आत्मानंदी बन गये।
सभी श्रमणोपासकों के पास गोधन का भी प्राचुर्य था। इससे यह प्रकट होता है कि गो-पालन का उस समय बहुत प्रचलन था तथा जैन भी खेती तथा गो-पालन के काम किया करते थे। अभ्यंगन विधि के परिमाण में शतपाल तथा सहस्रपाक तेलों का उल्लेख है। इसका तात्पर्य है कि आयुर्वेद काफी विकसित था। आनन्द ने श्रावकव्रत धारण करते समय खाद्य, पेय, भोग, ठपभोग आदि का जो परिमाण किया था, उसमें उस समय के समृद्ध रहन-सहन पर भी प्रकाश पड़ता है। पिनगृह से कन्याओं के विवाह के समय सम्पन्न घरानों से उपहार के रूप में चल-अचल सम्पत्ति देने का भी रिवाज था, जिस पर पुत्रियों का अधिकार रहता था जिसे आज स्त्रीधन कहा जाता है। यह महाशतक के जीवन से पता चलता है। वस्तुओं का लेन-देन स्वर्णमुद्राओं से होता था, दास-- दासी रखने का भी रिवाज था। इस तरह भगवान महावीर के समय में भारतीय समाज के समृद्ध व्यवस्थित जीवन का चित्रण देखने को मिलता है। हालांकि प्रत्यक्ष रूप से साधनामय जीवन से इनका कोई संबंध नहीं है, लेकिन सुखी एवं समृद्ध गृहस्थ भी जीवन के उत्तरार्द्ध में इन सब सुखों को त्यागकर किस प्रकार प्रौषधशालाओं में एकान्त में बैठकर कठिन श्रावक प्रतिमाओं को अंगीकार कर जीवन सार्थक करते थे, यह हम लोगों के लिये दीपशिखा का काम करता है : ऐसे श्रमणोपाराकों का संक्षिप्त जीवन यहाँ प्रस्तुत है
(1) आनन्द श्रावक __ भगवान महावीर का अनन्य उपासक आनन्द श्रावक वाणिज्य ग्राम मगर में अपनी रूपगुण सम्पन्न पत्नी शिवानन्दा के साथ सुखपूर्वक रह रहे थे। आनन्द श्रावक के पास १२ करोड़ सोनैया की धनराशि थी जिसके तीन भाग किये हुए थे। ४ करोड़ व्यापार में, ४ करोड़ भन भंडारों में, ४ करोड़ घर-बिखरी में लगा हुअ था तथा चालीस हजार गायों का पशुधन था। इतनी
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. ऋद्धि के धारक होने पर भी भगवान महावीर के उपदेशों को सुनकर उन्होंने अपना जीवन पूर्णत: संयमित करते हुए स्वयं तथा पत्नी शिवानन्दा ने पांच अणुव्रत तथा चार शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का धर्म स्वीकार कर लिया। सच्चे देव, गुरु, धर्म और अन्य तीर्थिको की आराधना स्वीकार कर ली। चौदह वर्ष निर्दोष रीति से पालन करने के बाद समाज के आमंत्रित मित्रों के चीन उन्होंने अपने सबसे बड़े पुत्र को अपने स्थान पर नियुक्त किया और स्वयं ज्ञातकुल की पौषधशाला में चले गये तथा वहां ग्यारह प्रतिमाओं को ग्रहण किया। प्रतिमाओं को धारण करने से उनके शरीर में केवल अस्थिभाग रह गया । अतएव उन्होंने सविधि संथारा कर लिया। शुभ परिणाम की धारा में उन्हें अवधिज्ञान हो गया। इस अवधिज्ञान में वे पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण दिशा में ५००-५०० योजन तक का लवण समुद्र का क्षेत्र, उत्तरदिशा में चुल्ल हिमवान् वर्षधर पर्वत तक का क्षेत्र, ऊर्ध्व दिशा में सौधर्म कल्प तक तथा अधोदिशा में रत्नप्रभा नरक में लोलुपाच्युत तक जानने देखने लगे । उन्हीं दिनों भगवान महावीर अपने गौतमादि शिष्यों सहित वाणिज्यग्राम में पधारे। गौतम स्वामी बेले के पारणा के दिन आनन्द श्रावक को दर्शन लाभ देने हेतु पौषधशाला पधारे। आनन्द श्रावक ने अपने अवधि ज्ञान की चर्चा की। गौतम ने कहा कि गृहस्थ को अवधिज्ञान तो होता है, परन्तु इतना त्रिशाल नहीं हो सकता । अत: तुम आलोचना कर प्रायश्चित करो। आनन्द ने प्रत्युत्तर में कहा कि सत्य कथन की आलोचना नहीं होती। आपको मृषा बोलने की आलोचना करनी चाहिए । गौतम को अपने वचन पर शंका हुई। वे प्रभु महावीर के पास पहुंचे, पूरी घटना का जिक्र किया। प्रभु ने कहा- गौतम! तुमने अपने ज्ञान का उपयोग लगाकर नहीं देखा, तुम आनन्द श्रावक के पास जाकर क्षमायाचना करो। गौतमस्वामी ने पारणा बाद में किया, पहले आनन्द के पास जाकर क्षमायाचना की। विनय धर्म की ऐसी मिशाल दुर्लभ है। आनन्द एक मास की संलेखना के पश्चात् आत्म-समाधि अवस्था में देह त्यागकर प्रथम देवलोक के सौधर्मकल्प में अरूप नामक विमान में उत्पन्न हुए। वहाँ से च्यवन कर, चार पल्योपम की आयु पूर्ण कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध, बुद्ध यावत् सभी कर्मों का क्षय करेंगे।
(2) कामदेव
चम्पा नामक नगरी में कामदेव नामक सुप्रतिष्ठित एवं धनाढ्य गाथापति अपनी आर्या भद्रा के साथ रहता था। उसके पास ६ करोड़ सोनैया सुरक्षित, ६ करोड़ घर बिखरी में ६ करोड़ व्यापार में तथा साठ हजार गयें थी। उन्होंने भगवान महावीर के उपदेश सुनकर श्रावक धर्म अंगीकार कर लिया। चौदह वर्ष के बाद अपना सारा कार्यभार ज्येष्ठ पुत्र को सौंपकर पौधशाला में रहकर धर्म की आराधना करने लगे। उनकी चर्चा स्वर्ग लोक
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में इन्द्र ने की, तब एक देव उनकी परीक्षा लेने के लिए एक रात्रि को उनके पास आया तथा उसने नंगी तलवार लेकर धर्म से विचलित करने का प्रयास किया। फिर विशालाकार हाथी और विषैले सर्प का रूप धारण कर मारणान्तिक कष्ट देने लगा। लेकिन कामदेव जी जरा भी विचलित नहीं हुए। अंत में देव हार मान गया और अपना दिव्य स्वरूप प्रकट करते हुए उनसे क्षमायाचना की। कामदेवजी ने श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का अनुक्रम से पालन किया। इस प्रकार २० वर्षों तक श्रावक धर्म की मर्यादा कर यथावत् पालन करते हुए अंत में एक माह का संलेखना संथारा कर आयुष्य पूर्ण कर सौधर्म कल्प के अरुणाभ विमान में देव रूप में उत्पन्न हुए। वहाँ चार पल्योपम की स्थिति पूर्णकर वे महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होंगे।
( 3 ) चुलनीपिता श्रमणोपासक
वाराणसी नगरी में चुलनीपिता नामक धनाढ्य गाथापति अपनी पत्नी श्यामा के साथ रहता था। उसके पास ८ करोड़ धन निधान के रूप में, ८ करोड़ घर-बिखरी में तथा ८ करोड़ व्यापार में लगा हुआ था और ८० हजार गायें थी। भगवान महावीर की वाणी सुनकर उन्होंने श्रावक व्रत अंगीकार किया तथा कालान्तर में पौषधशाला में ब्रह्मचर्ययुक्त पौषध करते हुए भगवान द्वारा फरमाई गई धर्मप्रज्ञप्ति को स्वीकार कर आत्मा को भावित करने लगे। एक दिन अर्द्धरात्रि के समय कामदेव की भांति उनकी परीक्षा लेने हेतु एक देव आया एवं बोला- 'यदि तू व्रत भंग नहीं करेगा तो तेरे पुत्र को मारकर उसके मांस को उबलते हुए तेल के कड़ाह में तल कर उस मांस एवं रक्त को तेरे शरीर पर सिंचन करूंगा, जिससे तू आर्त्तध्यान करता हुआ मृत्यु को प्राप्त करेगा।' चुलनीपिता नहीं डरे । उसने वैसा ही किया, लेकिन वे व्रत में स्थिर रहे। इसी तरह दूसरे एवं तीसरे पुत्र का भी किया, फिर भी वे विचलित नहीं हुए। अंत में देव ने माँ को इसी प्रकार मार डालने का डर दिखाया। प्रथम बार कहने पर निर्भय रहे, दूसरी, तीसरी बार कहने पर वे विचलित हो गये और ललकारते हुए पकड़ने के लिए उद्यत हुए तो वह देव आकाश में उड़ गया और खम्भा हाथ में आया। कोलाहल सुनकर माना भद्रा उनके समीप आयी। उन्होंने कहा कि मिथ्यात्वी देव के कारण तुमने यह दृश्य देखा है जिससे तेरा व्रत खंडित हो गया है, अतएव आलोयणा करके तप प्रायश्चित्त कर। उन्होंने ऐसा ही किया। अंत में आनन्द श्रावक की तरह २० वर्ष श्रावक धर्म का पालन कर, ११ प्रतिमाओं का आराधन कर प्रथम देवलोक के सौधर्म कल्प के अरुणप्रभ नामक विमान में उत्पन्न हुए। वहां चार पल्योपम की आयु पूर्ण कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होंगे।
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(4) सुरादेव
सुधर्मा स्वामी ने जम्बू स्वामी से सुरादेव श्रावक की यशोगाथा बताते हुए कहा कि वाराणसी नगरी में समृद्धिशाली सुरादेव गाथापति अपनी पत्नी धन्ना के साथ सुखपूर्वक रह रहे थे। उनके पास १८ करोड़ का धन था, १ / ३ भाग घर बिखरी, १/३ भाग व्यापार एवं १/३ भाग सरक्षित राशि तथा ६ व्रज गायों के यानी १० हजार गायों के एक व्रज के हिसाब से ६० हजार गायें थी। उन्होंने भी भगवान महावीर की देशना सुनकर श्रावक धर्म स्वीकार किया और कामदेव को भांति पौषधशाला में धर्मप्रज्ञप्ति का पालन करने लगे । देवलोक में इन्द्र से उनकी प्रशंसा सुनकर एक देव उनकी परीक्षा लेने आया और बोला- यदि तू श्रावक व्रत का त्याग नहीं करता तो तेरे तीनों पुत्रों को मार कर उबलते तेल में तल कर तेरे शरीर पर डालूंगा एवं वैसा ही किया । फिर भी सुरादेव ने सगभावपूर्वक वेदना सहन की और धर्म में स्थिर रहे । तब देव ने कहा कि तेरे अन्दर १६ महारोगों - श्वास, खांसी, ज्वर, दाद, शूल, भगंदर, बवासीर, अजीर्ण, दृष्टिशूल मस्तकशूल, अरोचक, आंख की वेदना, कान की वेदना, खाज, उदर रोग और कोढ़ का प्रक्षेप करता हूँ। दो तीन बार कहने पर वे उसे अनार्य पुरुष समझकर पकड़ने के लिये झपटे तो देव आकाश में उड़ गया तथा खंभा हाथ में आया। शोरगुल सुन पत्नी धन्ना आई। उसने देवकृत परीषह बताकर उसका समाधान करते हुए आलोचना, प्रायश्चित्त करने की सलाह दी। चुलनीपिता की तरह उन्होंने भी प्रायश्चित्त करते हुए २० वर्ष की श्रावक पर्याय का पालन कर एक मास की संलेखना कर प्रथम देवलोक के अरुणकान्त विमान में उत्पन्न हुए। वहाँ चार पल्योपम की आयु पूर्ण कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होंगे। (5) श्रमणोपासक चुल्लशतक
भगवान महावीर के विचरण काल में आलभिका नामक नगरी में जितशत्रु राजा राज्य करते थे। वहां चुल्लशनक नामक ऋद्धिसम्पन्न गाथापति रहता था। उसके पास सुरादेव की भांति १८ करोड़ का धन था, जिसका तीसरा भाग घर-बिखरी, तीसरा भाग व्यापार, तीसरा भाग भंडार में लगा हुआ था तथा दस दस हजार गायों के ६ व्रज थे। वे भी कामदेव की भांति पौषधशाला में भगवान द्वारा बताई गई विधि के अनुसार धर्मध्यान करने लगे। मध्यरात्रि में देव का आगमन हुआ तथा सुरादेव की तरह तीनों पुत्रों को मारने का भय दिखाया एवं वैसा ही किया तथा सम्पूर्ण सम्पत्ति को सारी नगरी में बिखेरने का भय दिखाया। चुल्लशतक उसके तीन बार वचन सुनकर उस देव को अनार्य पुरुष समझकर पकड़ने उठे। शेष सुरादेव की तरह पत्नी कोलाहल सुनकर आयी, प्रायश्चित्त किया । यावत् अरुणसिद्ध विमान में देवरूप से उत्पन्न हुए। चार पल्योपम की स्थिति पूर्ण कर वे महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध, बुद्ध एव मुक्त होंगे।
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जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क (6) श्रमणोपासक कुण्डकोलिक कम्पिलपुर नगर में कुण्डकोलिक नामक गाथापति अपनी पत्नी पूषा के साथ रहता था। चुल्लशतक की भाति १८ करोड़ की धनराशि थी एवं उसी तरह धन के तीन भाग करके उपयोग किया। ६० हजार गायें थी भगवान को वाणी सुन बारह व्रत धारण कर साधु-साध्वियों को प्रासुक एषणीय आहार पानी बहराता हुआ रहने लगा। एक दिन वे दोपहर को अशोक वाटिका में गये। अपनी मुद्रिका एवं अन्तरीय वस्त्र उतारकर धर्मविधि से चिन्तन करने लगे। उसी समय एक देव आया तथा मुद्रिका एवं वस्त्र उठाकर कहने लगा--. मखलिपुत्र गोशालक की धर्मविधि अन्छी है। उसमें उत्थान, बल, वीर्य, पुरुषाकार पराक्रम आदि कुछ भी नहीं हैं। सभी भावों को नियम से गारा गया है, इस तरह नियतिवाद का पक्ष प्रस्तुत किया। यह बात अच्छी है न तो कोई परलोक है, न पुर्नजन्म। जब वीर्य नहीं तो बल नहीं, कर्म नहीं, बिना कर्म के कैसा सुख और दुःख? जो भी होता है भवितव्यता से होता है।
तब कुण्डकोलिक ने कहा- तुम्हें यह देव ऋद्धि आदि नियति से प्राप्त हुए हैं या पुरुषाकार पराक्रम से? यदि देवभव के योग्य पुरुषार्थ के बिना ही कोई देव बन सकता है तो सभी जीव देव क्यों नहीं हो गये? ऐसा कथन सुनकर देव निरुत्तर हो गया तथा वस्त्र एवं नामांकित अंगूठी रखकर वापिस चला गया। भगवान महावीर उस समय कम्पिलपुर पधारे तथा कुण्डकोलिक की प्रशंसा करते हुए कहा कि- सभी साधु-साध्वियों को अन्य तीर्थयों के समक्ष अर्थ, हेतु, प्रश्न, कारण, अख्यान से अपने मत को पुष्ट करना चाहिये।। श्रावक पर्याय के १४ वर्ष बीनने पर पन्द्रहवें वर्ष में कामदेव की भांति ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का मुखिया बनाकर कुण्डकोलिक धर्मविधि से आराधना करते हुए ग्यारह प्रतिमाओं को धारण कर एक मास की संलेखना एवं संथारा कर प्रथम सौधर्म देवलोक के अरुणध्वज विमान में ४ पल्योपम की स्थिति वाले देव हुए। वहां से महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होंगे।
(7) श्रमणोपासक सकडालपुत्र पोलासपुर नामक नगर में गोशालक मन को मानने वाला सकडालपुत्र नामक कुम्हार अपनी पत्नी अग्निमित्रा के साथ रहता था। उसके पास एक करोड़ स्वर्णमुद्रायें निधान में, एक करोड़ व्यापार में, एक करोड़ की घर बिखरी में थी, दस हजार गायों का एक व्रज था तथा नगर के बाहर मिट्टी के बर्तन बनाने की पांच सौ दुकानें थी। जिनमें कई वैतनिक नौकर काम करते थे। एक दिन वह अशोक वाटिका में गोशालक की धर्मविधि का चिन्तन करने लगा। तभी वहाँ एक देव आया और आकाश से ही बोलने लगा “कल
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..1911 यहां त्रिलोक पूज्य, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी. केवलज्ञान के धारक, देव-दानवों से पूजित देव आयेंगे, तुम उनके पास जाकर पर्युपासना करना'' ऐसा कहकर देव चला गया। सकड़ालपुत्र ने सोचा गोशालक अतिशयधारी है वे कल आयेंगे, मैं उन्हें प्रतिहारिक पीठ-फलक आदि का निमन्त्रण दूंगा। दूसरे दिन भगवान महावीर के आने पर सकड़ालपुत्र धर्मकथा सुनने गया। भगवान ने उनसे कहा... देव ने गोशालक के लिए नहीं कहा था। यह सुन उन्होंने भगवान को उचित पाठ पढाने एवं रहने के लिए ३०० दुकानें दे दी। फिर भगवान से नियतिवाट की अप्रमाणिकता पर कई प्रश्न पूछे जिससे सेठ की सारी शंकाएँ दूर हो गई और वह भगवान का भक्त बन गया तथा पत्नी को प्रेरणा देकर प्रभु महावीर के धर्मोपदेश सुनने भेजा। वह भी श्राविका बन गई, श्राविका व्रत धारण कर लिये। गोशालक सकड़ालपुत्र के जैनी बनने पर पोलसपुर आया, उसने बहुत प्रयास किये, परन्तु वह सकड़ालपुत्र को किसी भी तरह विचलित नहीं कर पाया, अतएव खेद करते हुए गोशालक अन्य जनपदों में विचरने लगा।
चौदह वर्ष श्रावक धर्म की पर्याय का पालन किया। पन्द्रहवें वर्ष पौषधशाला में धर्मविधि की आराधना करते समय एक देव आया। उसने एक-एक कर तीनों लड़कों को सकड़ालपुत्र के सामने मारा, उनके नौ मांस खंड कर उसके शरीर पर छिड़का, वह नहीं घबराया तो पत्नी के बारे में भी ऐसा करने को कहा। वह विचलित हो गया, देव को पकड़ने लगा। वह देव आकाश-मार्ग से चला गया, खम्भा हाथ लगा। पत्नी ने वस्तुस्थिति समझाकर प्रायश्चिन करवाया, एक माह का संथारा कर प्रथम देवलोक में ४ पल्योपम को आयु वाले अरुणभूत विमान का उपभोग कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होंगे।
(8) श्रमणोपासक महाशतक राजगृह नगर में महाशतक नामक समृद्ध गाथापति अपनी तेरह पत्नियों के साथ सुखपूर्वक रह रहा था। उसके पास २४ करोड़ (स्वर्णमुद्राओं) में से ८ करोड़ बचत, ८ करोड़ घर बिखरी, ८ करोड़ व्यापार में, आट व्रज यानी ८०००० पशु धन था। भगवान महावीर के गुणशील उद्यान में पधारने, धर्मोपदेश सुनने के बाद अपनी सम्पत्ति का परिमाण किया। एक बार रेवती ने सोचा कि बारह सौतों (सपत्नियों)के होते मैं यथेष्ट कामभोग का सेवन नहीं कर सकती, अतएव किसी तरह इनकी जीवन लीला समाप्त कर दी जाय, जिससे इनके पीहर से आये सारे धन का भी उपभोग कर सकू। उसने अपनी ६ सौतों को शस्त्र प्रयोग से तथा छ: सौतों को विष देकर मार डाला तथा उनका १२ करोड़ का धन अपने अधीन कर लिया तथा भोग में इतनी तल्लीन हो गई कि मदिरा और मांस के बिना उसे
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चैन नहीं मिलता।
एक बार महाराज श्रेणिक ने पशुवध बन्द करा दिया। तब वह अपने पीहर से प्राप्त गोव्रज में से दो बछड़ों को नौकर द्वारा मरवा कर प्रतिदिन उनका माँस खाने लगी। उधर महाशतक श्रमणोपासक ने श्रावक व्रतों को धारण कर लिया। ऐसा करते १४ वर्ष बीत गये । तत्पश्चात् उन्होंने ग्यारह उपासक प्रतिमाओं को अंगीकार कर लिया एवं शरीर कमजोर होने पर संथारा कर लिया। साधना में उन्हें अवधिज्ञान हो गया। संसार के प्रति उदासीन वृत्ति को देखकर रेवती कामवासना में उन्मत्त होकर उन्मादजनक वचन, कामोद्दीपक बड़बड़ बोलने लगी। महाशतक को भी क्रोध आ गया। उन्होंने कहा, तेरी आयुष्य पूर्ण होने वाली है, सात दिन के अन्दर अलसक नामक रोग से पीड़ित होकर अपने किये कुकर्मो के कारण पहली नरक में चौरासी हजार वर्ष की आयु वाले नैरयिकों में उत्पन्न होगी। भगवान महावीर ने गौतम को महाशतकं को प्रतिबोध देने भेजा कि तुम्हें संलेखना संथारा में सत्य तथा यथार्थ होते हुए भी कठोर एवं अकमनीय, असुन्दर वचनों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। गौतम महाशतक के पास गये। महाशतक ने भूल स्वीकार की तथा उपयुक्त भावों की आलोचना कर समाधिपूर्वक देहत्याग किया तथा पहली देवलोक में ४ पल्योपम का आयु भोग कर महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होंगे।
( 9 ) श्रमणोपासक नन्दिनीपिता
श्रावस्तीनगर में नन्दिनीपिता नामक समृद्धिशाली गाथापति अपनी पत्नी अश्विनी के साथ रहता था। उसके ४ करोड़ स्वर्णमुद्राएँ सुरक्षित धन के रूप में, ४ करोड़ व्यापार, ४ करोड़ घर बिखरी में थी तथा दस-दस हजार गायों के चार संकुल थे। भगवान महावीर के श्रावस्ती नगर पधारने पर वह श्रावक धर्म अपनाकर श्रमणोपासक बन गया तथा श्रावक के बारह व्रतों का पालन करता हुआ आनन्द श्रावक की तरह अपने ज्येष्ठ पुत्र को पारिवारिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्व सौंप कर धर्मोपासना में निरत रहने लगा। बीस वर्षो तक श्रावक धर्म का पालन किया तथा अन्त में देह त्याग कर पहली देवलोक में उत्पन्न हुआ। वहां से महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सिद्ध, युद्ध और मुक्त होगा।
जिनवाणी- जैनागम - साहित्य विशेषाङ्क
( 10 ) श्रमणोपासक सालिहीपिता
श्रावस्ती नगरी में सालिहीपिता नामक एक धनाढ्य एवं प्रभावशाली गाथापति रहता था। नंदिनीपिता की तरह वह भी १२ करोड़ का स्वामी था तथा एक भाग व्यापार में एक भाग घर बिखरी में एक भाग सुरक्षित तथा चार गोकुल थे।
एक बार भगवान महावीर का श्रावस्ती नगरी में पदार्पण हुआ ।, श्रद्धालुजनों में उत्साह छा गया. सालिहीपित भी गया। उसने श्रावक धर्म
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उपासकदशांग: एक अनुशीलन .... स्वीकार कर लिया ! १४ वर्ष बाद अपने ज्येष्ठ पुत्र को घरबार सौंप धर्माराधना में लग गया तथा श्रावक की ११ प्रतिमाओं को धारण किया। उन्हें कोई उपसर्ग नहीं आया। अन्त में समाधिमरण प्राप्त कर पहले देवलोक के अरुणकील विमान में देव उत्पन्न हुआ, वहां से महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होंगे। उपसंहार
इन दस श्रमणोपासकों के अध्ययन से यह पता चलता है कि भगवान महावीर के शासन काल में ऐसे श्रावक थे, जिन्हें देव-दानव कोई धर्म से डिगा नहीं सकते थे। आनन्द और कामदेव तो अन्त तक देव के सामने नहीं झुके, नहीं डरे। चुलनीपिता मातृवध की धमकी से, सुरादेव सोलह भयंकर रोग उत्पन्न होने की धमकी से, चुल्लशनक सम्पत्ति बिखेरने की धमकी से देव को मारने की भावना से उठे अवश्य, लेकिन धर्म नहीं छोड़ा तथा आवेश लाने का प्रायश्चित्त भी कर लिया। सकड़ालपुत्र की पत्नी अग्निमित्रा ने आगे बढ़कर पति को प्रायश्चित्त के लिए प्रेरणा दी। ये सभी चरित्र हमें भी उपसर्ग के समय पाखण्डी देवों के सन्मुख विचलित न होने की प्रेरणा देते हैं।
इस सूत्र में वर्णित दस श्रावकों के जीवन में कई समानताएँ हैं। सभी उपासकों ने बीस वर्ष की श्रावक पर्याय पालन की, श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं की आराधना की, देव - दानवों और मानवों द्वारा प्रदत्त घोर परीषह सहन किये, संलेखना संथारा किया, प्रथम देवलोक में ४ पल्योपम की स्थिति वाले देव बने तथा अगले भव में महाविदेह क्षेत्र में मनुष्य भव को प्राप्त कर मुक्ति पाने वाले होंगे। इस प्रकार की समानता के कारण ही आगमकार ने इन दस उपासकों का वर्णन इस अंगसूत्र में किया, अन्यथा यत्र-तत्र आगमों में सुदर्शन, तुंगियां के श्रावक, पूणिया श्रावक आदि कई श्रावकों का वर्णन है।
दूसरी ओर गौतम गणधर द्वारा आनन्द श्रमणोपासक से क्षमायाचना करना बड़ा उद्बोधक प्रसंग है। प्रसन्नतापूर्वक अपने अनुयायी से क्षमा मांगने उनकी पौषधशाला में पहुँच जाते हैं। जैन दर्शन का कितना ऊँचा आदर्श, व्यक्ति बड़ा नहीं, सत्य बड़ा है। एक गणधर अपने साधु समाज से ही नहीं श्रावक से भी क्षमा मांगने सहज चले गये, कितनी अभिमान शून्यता है। किसी कवि ने ठीक ही कहा है
खुद की खुदाई से जो जुदा हो गया।
खुदा की कसम वह खुदा हो गया। इस तरह यह अंगसूत्र श्रावक-श्राविकाओं के लिये मार्गदर्शक का काम करता है। हमें भी अपने पारिवारिक जीवन को व्यवस्थित एवं अनुशासित करते हुए जीवन के अंतिम समय को ध्यान में रखते हुए जीवन
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________________ [194 .. जिनवाणी- जैनागम साहित्य विशेषाङ्क चर्या को चलाना चाहिये। जीवन का उत्तरार्ध कैसे सार्थक हो, इसके लिये हमेशा सजग रहना चाहिये। -संयोजक, श्री स्थानकवासी जैन स्वाध्याय संघ, जोधपुर जी-21, शास्त्री नगर, जोधपुर