Book Title: Tulsi Shabda Kosh Part 01
Author(s): Bacchulal Avasthi
Publisher: Books and Books

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Page 7
________________ उपक्रम मति कीरति गति भूति मलाई । जो जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई ॥ सो जानिक्ष सतसंग प्रभाऊ । लोकहुं वेद न आन उपाऊ ।। यह सत्सङ्ग घर में भी, ईश्वर के अनुग्रह से, सुलभ रहा। मेरे पितामह, श्री बैजनाथ अवस्थी, कैथी लिपि जानते थे। वे देवनागरी लिपि का मुद्रित रूप कञ्चित् बाँच लेते थे-अर्थ अज्ञात रहे तो बाँचना भी असम्भव था। मेरे पिता बद्री प्रसाद अवस्थी कैथी से अपरिचित थे परन्तु नागरी अक्षर पहचानते थे। माता जगराता देवी इस दष्टि से निरक्षर थीं। इस घर के ग्रन्थागार में छोटेबड़े चार-छह ग्रन्थ थे-(१) रामचरितमानस जिसे 'रामायन' कहा जाता था, (२) विनयपत्रिका 'बिन' नाम से विदित थी, (३) कवितावली, (४) हनुमानबाहुक, (५) हनुमान चालीसा और (६) प्रेमरतन । स्नान करके पिता एवं पितामह हनुमान चालीसा पढ़ते थे और सुभीता निकालकर प्रतिदिन 'रामायन' का वाचन हुआ करता था। प्राय: 'बाबा' पढ़ते थे और 'बप्पा' बैठे सुना करते थे तो कभी-कभी मैं भी बैठ जाता था । विनयपत्रिका और कवितावली का गायन बाबाजी रात में करते थे तथा हनुमानबाहुक का पाठ कभी-कभार होता था। 'प्रेमरतन' ही ऐसी पुस्तिका थी जिसके रचयिता तुलसीदास न थे प्रत्युत राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द की पितामही रतन वरि' ने उसकी रचना की थीकुरुक्षेत्र में विरहिणी गोपियों से कृष्ण के पुनर्मिलन की कथा थी जिसे पढ़ते हुए बाबा अश्रुधारा बहाते हुए आनन्दलीन हो जाया करते थे। मैं पांचवें वर्ष में चल रहा था कि एक दिन अचानक मानस पाठ रुकने पर मैंने 'भ' अक्षर पर उँगली रख कहा कि यह 'म' है, पिताजी ने दोनों में अन्तर बताया और मैंने 'भ' के सहारे 'म' भी जान लिया। इस प्रकार क्रमरहित वर्णमाला के ज्ञान के साथ ही मैं 'रामायन' बाँचने लगा। हनुमानचालीसा धाराप्रवाह पढ़ने लगा। मेरे

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