Book Title: Trimantra
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 11
________________ त्रिमंत्र त्रिमंत्र कहलाते हैं। और ये जो सिद्ध पुरुष होते हैं न, वे तो मनुष्य ही कहलाते हैं। इनको आप गाली दें तो ये सिद्ध पुरुष तो घमासान मचा दे, नहीं तो आपको शाप दे दें। ऊँचा कौन और नीचा कौन? आपको क्या लगता है? बहुत सोचने से नहीं मिलेगा, अपने आप सहज रूप से बोल दीजिए न! प्रश्नकर्ता : नमस्कार करें इसलिए सभी समान। अब उनमें श्रेष्ठता अथवा न्यूनता हम कैसे तय कर सकते हैं? दादाश्री : मगर इन लोगों ने पहला नंबर नमो अरिहंताणं का लिखा और सिद्धाणं का दूसरा नंबर लिखा, उसकी कोई वज़ह आपकी समझ में आई? वे क्या कहते हैं कि जो सिद्ध हुए वे संपूर्ण हैं। वे वहाँ पर सिद्धगति में जा बैठे हैं, पर वे हमारे कुछ काम नहीं आते हैं। हमें तो 'ये' (अरिहंत) काम आते हैं, इसलिए उनका पहला नंबर और बाद में सिद्ध भगवान का दूसरा नंबर है। ___ और सिद्ध भगवंत जहाँ हैं, वहाँ जाना है। इसलिए तो वे हमारा लक्ष्य हैं। मगर उपकारी कौन हैं? अरिहंत । खुद ने छह दुश्मनों को जीता हैं और हमें जीतने का रास्ता दिखाते हैं, आशीर्वाद देते हैं। इसलिए उन्हें पहले रखा। उन्हें बहुत उपकारी माना। अर्थात् हमारे लोग प्रकट को उपकारी मानते हैं। अंतर, अरिहंत और सिद्ध में प्रश्नकर्ता : सिद्ध भगवान किसी प्रकार मानवजीवन के कल्याण हेतु प्रवृत होते हैं क्या? दादाश्री : नहीं। सिद्ध तो आपका ध्येय है पर फिर भी वे आपको कुछ हेल्प करनेवाले नहीं हैं। वह तो यहाँ पर ज्ञानी हों अथवा तीर्थंकर हों, वे आपकी हेल्प करेंगे, वे मदद करेंगे, आपकी भूल दिखायेंगे, आपको राह दिखायेंगे, आपका स्वरूप दिखायेंगे। प्रश्नकर्ता : तो ये सिद्ध देहधारी नहीं हैं? दादाश्री : सिद्ध भगवान देहधारी नहीं होते, वे तो परमात्मा प्रश्नकर्ता : अरिहंत और सिद्ध में क्या अंतर है? दादाश्री : सिद्ध भगवान को शरीर का बोझ नहीं उठाना पड़ता। अरिहंत को शरीर का बोझ उठाकर चलना पड़ता है। उनको खुद को शरीर बोझ रूप लगता है, मानों इतना बड़ा घड़ा सिर पर रखकर इधरउधर घूमते हो। कुछ कर्म शेष हैं उन्हें पूरे किये बगैर वे सिद्धगति में नहीं जा सकते। इसलिए उतने कर्म भुगतने शेष हैं। नमो आयरियाणं... ये दो हुए, अब? प्रश्नकर्ता : 'नमो आयरियाणं'। दादाश्री : अरिहंत भगवान के बताए हुए आचार का जो पालन करते हैं और उन आचारों का पालन करवाते हैं, ऐसे आचार्य भगवान को नमस्कार करता हूँ। उन्होंने खुद आत्मा की प्राप्ति की है, आत्मदशा प्रकट हुई है। वे संयम सहित हैं। पर यहाँ इस समय यह जो आचार्य हैं वे (सच्चे) आचार्य नहीं हैं। ये तो ज़रा-सा अपमान करने पर तुरंत ही क्रोधित हो जाते हैं। अर्थात् ऐसे आचार्य नहीं होने चाहिए। उनकी दृष्टि में परिवर्तन नहीं आया है। दृष्टि परिवर्तन होने के बाद काम होगा। जो मिथ्या दृष्टिवाले हैं, उन्हें आचार्य नहीं कहा जाता। सम्यक्त्व (आत्मदृष्टि) होने के बाद आचार्य बनें तो वे आचार्य कहलाते हैं। आचार्य भगवान कौन से? यह दिखाई देते हैं, वे जैनों के आचार्य नहीं। जैनों में वर्तमान में कई आचार्य होते हैं, वे भी नहीं और वैष्णवों के भी आचार्य हैं, वे भी नहीं। मंडलेश्वर होते हैं, वे भी नहीं। सुख

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