Book Title: Trimantra
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 15
________________ त्रिमंत्र त्रिमंत्र योग आदि जो सब कुछ करते हैं वे सारी संसार दशाएँ हैं। आत्मदशा वह असल वस्तु है। कौन-कौन से योग में संसार दशा हैं? तब कहें, एक तो देहयोग, जिसमें आसन आदि करने पड़ें वे सभी देहयोग कहलाते हैं। फिर दूसरा मनोयोग, यहाँ चक्रों के ऊपर स्थिरता करना वह मनोयोग कहलाता है। और जपयोग करना वह वाणी का योग कहलाता है। ये तीनों स्थूल शब्द हैं और उसका फल संसार फल मिलता है। अर्थात् यहाँ बंगला मिले, गाड़ियाँ मिलें। और आत्मयोग होने पर मुक्ति मिलती है, सभी प्रकार के सुख प्राप्त होते हैं। वह आखिरी, बड़ा योग कहलाता है। सव्वसाहूणं यानी जो आत्मयोग साधकर बैठे हैं ऐसे सभी साधुओं को मैं नमस्कार करता हूँ। ____ अर्थात् साधु कौन? जिनको आत्मा की प्रतीति हुई है, उनकी गिनती हमने साधुओं में की। अर्थात् यह साहूणं को पहली प्रतीति और उपाध्याय को विशेष प्रतीति और आचार्य को आत्मज्ञान होता है। और अरिहंत भगवान वे पूर्ण भगवान! इस रीति से नमस्कार किए हैं। पाँचो इन्द्रियाँ सुनें तब... प्रश्नकर्ता : भगवंतों ने नवकार के पाँच पदों की जो रचना की है, उनमें पहले चार तो सही हैं पर पाँचवे में नमो लोए सव्वसाहूणं के बजाय सव्वसाहूणं क्यों नहीं रखा? दादाश्री : उन्हों ने जो कहा है न, वह जैसा है वैसा, कानामात्रा के साथ बोलने को कहा है। क्योंकि उनके श्रीमुख से निकली वाणी है। उसका भाषा परिवर्तन करने की मनाई की है। अर्थात् उनके श्रीमुख से निकली है, महावीर भगवान के मुँह से और वे जब बोलें न, तो वे परमाणु ही ऐसे संयोजित होते हैं कि मनुष्यों को अजूबा लगे। पर यह तो ऐसे बोलते हैं कि खुद को भी सुनाई नहीं देता, तब फल भी ऐसा ही मिलेगा न! खुद को फल का पता नहीं चलेगा। बाकी पाँचों इन्द्रियाँ सुनें ऐसे बोलने पर सच्चा फल प्राप्त होगा। हाँ, आँख भी देखा करे, कान भी सुना करे, नाक सूंघती रहे... यह तो नवकार यों ही बोलते हैं। जब कान सुने नहीं, कान भूखा रहे, आँखें भूखी रहें, जीभ अकेली मुँह में बोलती रहे, तब फिर कैसा फल मिलेगा? अर्थात् पाँचों इन्द्रियाँ प्रसन्न हों, तब नवकार मंत्र परिणमित हुआ कहलाये। मंत्र बोलते तो हैं मगर कान सुने, आँखें देखें, नाक सुगंध महसूस करे, उस समय चमड़ी को स्पर्श हो उसका, इस प्रकार बोलना चाहिए। इसलिए तो हम यह त्रिमंत्र ऊँची आवाज़ में बुलवाते हैं न! केवल साधक, नहीं बाधक यह हमारे लोगों ने जितना निश्चित किया है, उतना ही ब्रह्मांड नहीं है। ब्रह्मांड बहुत बड़ा है, विशाल है। संसार के स्वाद के खातिर साधना करें वे साधु नहीं हैं। स्वाद के खातिर, मान के खातिर, कीर्ति के खातिर, वे सभी साधनाएँ अलग होती हैं और आत्मा की साधना में यह सब नहीं होता। आत्मदशा सिद्ध करने जो साधना करते हैं वे साधु हैं। ऐसे सभी साधुओं को नमस्कार करता हूँ। बाकी सभी साधु नहीं कहलाते। देह दशा, देह के रौब के खातिर, देह के सुख की खातिर जो घूमते-फिरते हैं वह नहीं चलता। आत्मदशा साधनेवाले ही साधु कहलाते हैं। ऐसे साधु शायद ही हिन्दुस्तान में कोई हों! वे अन्य क्षेत्रों में हैं। उन सभी को नमस्कार करता हूँ। हमारा नमस्कार वहाँ पहुँचता है और हमें फल मिलता है। प्रश्नकर्ता : लोए यानी क्या? दादाश्री : नमो लोए सव्वसाहूणं। लोए यानी लोक। इस लोक के सिवा दूसरा अलोक है, वहाँ कुछ नहीं है। अर्थात् लोक में जो सभी साधु हैं उनको नमस्कार करता हूँ। प्रश्नकर्ता : अब आत्मदशा साधने पर आत्मा का ज्ञान होता है? दादाश्री : हाँ।

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