Book Title: Trimantra
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 14
________________ त्रिमंत्र इतना ही कहते हैं। तीर्थंकर अपनी देशना में ऐसा ही बोलते हैं। हाल में यहाँ पर तीर्थंकर नहीं हैं और सिद्ध भगवान तो अपने देश (सिद्धक्षेत्र) में ही रहते हैं। इसलिए तीर्थंकर के रीप्रेजेन्टेटिव (प्रतिनिधि) के तौर पर हाल में हम हैं। हाँ, उनके नहीं होने पर सारी सत्ता हमारे हाथ में है। इसलिए उसका आराम से उपयोग करते हैं, बिना किसी को पूछे ! पर हम तीर्थंकरों को अपने सिर पर रखते हैं, इसलिए उन्हें यहाँ बिठाये है न! १७ उपाध्याय में विचार और उच्चार दो ही होते हैं और आचार्य में विचार, उच्चार और आचार तीनों होते हैं। उनको इन तीनों की पूर्णाहुति होती है, इसलिए आचार्य भगवान कहलाते हैं । नमो उवज्झायाणं... प्रश्नकर्ता: 'नमो उवज्झायाणं' विस्तार से समझाइये । दादाश्री : उपाध्याय भगवान। उसका क्या अर्थ होता है? जिसे आत्मा की प्राप्ति हो गई है और जो खुद आत्मा जानने के पश्चात् सभी शास्त्रों का अभ्यास करते हैं और फिर दूसरों को अभ्यास करवाते हैं, ऐसे उपाध्याय भगवान को नमस्कार करता हूँ । उपाध्याय यानी खुद सबकुछ समझे सही फिर भी संपूर्ण आचरण में नहीं आये होते । वे वैष्णवों के हों कि जैनों के हों, किसी भी धर्म के हों पर आत्मा प्राप्त किया होता है। आज के ये साधु वे सभी इस पद में नहीं आते। क्योंकि उन्होंने आत्मा प्राप्त नहीं किया है। आत्मा प्राप्त करने पर क्रोध - मान-माया लोभ चले जाते हैं, कमजोरियाँ चली जाती हैं। अपमान करने पर फन नहीं फैलाते ( क्रोधित नहीं होते)। ये तो अपमान करने पर फन फैलाते हैं न? इसलिए फन फैलानेवाले वहाँ नहीं चलते हैं। प्रश्नकर्ता: उपाध्याय जानते हैं ऐसा कहा, पर वे क्या जानते है? त्रिमंत्र दादाश्री : उपाध्याय यानी जो आत्मा को जानते हैं, कर्तव्य को पहचानते हैं और आचार भी जानते हैं। उनमें कुछ आचार होते हैं और कुछ आचार आने शेष हैं। पर संपूर्ण आचार प्राप्त नहीं होने की वज़ह से वे उपाध्याय पद में हैं। इसलिए खुद अभी पढ़ रहे हैं और अन्य को पढ़ा रहे हैं। १८ प्रश्नकर्ता: अर्थात् आचार में पूर्णता नहीं आई होती ? दादाश्री : हाँ, उपाध्याय को आचार की पूर्णता नहीं होती । आचार की पूर्णता के बाद तो आचार्य कहलाते हैं। प्रश्नकर्ता : अर्थात् उपाध्याय भी आत्मज्ञानी होने चाहिएँ ? दादाश्री : आत्मज्ञानी नहीं, आत्मप्रतीतिवाले। पर प्रतीति की डिग्री जरा ऊँची होगी। और आगे? नमो लोए सव्वसाहूणं..... प्रश्नकर्ता : 'नमो लोए सव्वसाहूणं' विस्तार से समझाइये । दादाश्री : लोए यानी लोक, इसलिए इस लोक में जितने साधु हैं उन सभी साधुओं को मैं नमस्कार करता हूँ। साधु किसे कहेंगे? सफेद कपड़े पहने, गेरुआ कपड़े पहने उसका नाम साधु नहीं। आत्मदशा साधें वे साधु । अर्थात् जिन्हें बिल्कुल देहाध्यास नहीं, संसार दशा-भौतिक दशा नहीं मगर आत्मदशा साधे उन साधुओं को मैं नमस्कार करता हूँ। अब ऐसे साधु कहाँ मिलेंगे? अब ऐसे साधु होते हैं ? पर इस ब्रह्मांड में जहाँ-जहाँ भी ऐसे साधु हैं, उनको नमस्कार करता हूँ । संसार दशा में से मुक्त होकर आत्मदशा के लिए प्रयत्न करते हैं और आत्मदशा साधते हैं, उन सभी को नमस्कार करता हूँ । बाकी

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