Book Title: Triloksar
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
Publisher: Ladmal Jain

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ [ २ ] इसप्रकार श्री रतन चन्द्रजी मुख्त्यार और श्री चेतनप्रकाशपी पाटनी ने अन्य के सम्पादन में जो धम किया है वह श्लाघनीय है। प्रकाशन इस ग्रन्थ की १००० प्रतियों के प्रकाशन का व्यय भार श्री हीरालालजी पाटनी, निवाई को धर्मपत्नी श्रीमती रतनदेवी ने उठाया है। श्री पाटनीनी और उनकी धर्मपत्नी आदर्श दम्पति हैं।बी पाटनीषी बहुत समय से सप्तम प्रतिमा का और उनकी धर्मपत्नी द्वितीय प्रतिमा का पालन कर रही है। मुनियों के प्रति आपकी अगाध भक्ति है । एक बार माप आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज को समस्त संघ के साथ गिरनारजी ले गए और उसकी सारी व्यवस्था मापने स्वयं को । सानिया (जयपुर) तत्वचर्चा की व्यवस्था का पूर्ण सभी आपने दो उर-य ही नहीं उनाया, आपने जिस तत्परता से मागत विद्वानों की सेवा की थी, उसे स्मरण कर हृदय में पार हर्ष होता है । निवाई आने वाले महानुभाव आपके आतिथ्य से प्रभावित होते हैं । लथा श्रीमती सरदारी बाई घमं पनि स्व. श्री सुरजमल जी बहमास्या कामदार जोबनेर (जयपुर ) ने १२५ प्रतियों के प्रकाशन का व्यय भार वहन कर जिनवाणी के प्रचार में अपना स्तुत्य सहयोग प्रदान किया है । हम उनके अत्यन्त मामारी है। मुद्रण त्रिलोकसार से ही गणित के विभिन्न संकेतों से युक्त है उस पर माताजी ने विविध चित्रों, चार्टी तथा संदृष्टियों से इसे अलंकृत किया है अतः इसका मुद्रण करना सरल काम नहीं था। श्री नेमीचन्दजी पाचूलालजी जैन ने अपने कमल प्रिन्टर्स में इसका मुद्रा करना स्वीकृत किया, इसके लिए उपयुक्त टाइप की नयी व्यवस्था की और बड़ी समता व पीरज के साथ इसका मुद्रण किया, यह प्रसन्नता की बात है । कम्पोज किए हुए मंटर को बदलने की बात सुनते ही जहाँ अन्य प्रेसवालों का पास गर्म हो जाता है वहाँ बम्होंने बड़ी सरलता दिखलाई और मौम्यभाव से ग्रन्थ का मृद्रण किया । अतः दोनों ही महानुभाव धन्यवाद के पात्र हैं। आकृति निर्माण श्री माताजी के अभिप्राय को हृदयपत कर श्री विमलप्रकाशजी तथा श्री नेमीचन्दजी गंगवाल ने त्रिलोकसार की अनेक रेखामियां बनाई हैं, अतः वे धन्यवाद के पात्र हैं। इसप्रकार जिन जिन के सक्रिय सहयोग में इस ग्रन्थ का यह संस्करण निर्मित हुआ है, उन सबके प्रति नम्र आमार है। श्री पं. टोडरमलमी द्वारा त हिन्दी टाकावाला संस्करण वर्षों से अप्राप्य या इसलिए स्वाध्यायशीर जनता में इस ग्रंथ को बड़ी मांग थी। पूज्य माताजी ने इस परिमार्जित टीका की रचना कर तथा श्री पाटनीजी की धर्मपत्नी ने इसका प्रकाशन कर इस ग्रन्थ को सुलम किया है इसके लिए समस्त स्वाध्यायशील जनता इनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करती है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 ... 829