Book Title: Tirthankar 1978 11 12
Author(s): Nemichand Jain
Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore

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Page 265
________________ कसौटी इस स्तम्भ के अन्तर्गत समीक्षार्थ पुस्तक अथवा पत्र-पत्रिका की दो प्रतियाँ भेजना आवश्यक है। कालजयी (खण्डकाव्य) : भवानीप्रसाद मिश्र : भारतीय साहित्य प्रकाशन, २८६ चाणक्यपुरी (नूनिया मोहल्ला), सदर, मेरठ-१ : मूल्य-बारह रुपये पचास पैसे : पृष्ठ १०४ : डिमाई १/८, १९७८ । ____ भवानी भाई इधर के दशकों के प्रतिनिधि कवि रहे हैं। उनकी प्रहारक. सहजता, जीवन्त प्रयोग, अदम्य साहस, लोकहृदय से अनायास सीधे जुड़ने की प्रकृति; सादा, साफ-सुथरा चिन्तन-जिसकी मार केवल कुछ बुद्धिजीवियों तक ही सीमित नहीं रहती वरन् निसनी लगाकर जन तक पहुँचती है-'कालजयी' में दृष्टव्य है। वस्तुत: 'कालजयी' एक कालजयी कृति है, जिसे भारतीय संस्कृति के मूल उपादानों की सरला, लोकमंगला गीता कह सकते हैं, एक ऐसी कृति जिसे देश के गाँव-गाँव और शहर-शहर पहुँचाया जाना चाहिये क्योंकि यह एक ऐसे गांधीवादी मनुज की कृति है, जो ऐडी-से-चोटी तक मनुज है और दंभ जिसे कहीं से भी छू नहीं सका है। माना, यह उसका पहला खण्डकाव्य है, जिसका मुक्त चिन्तन बावजूद एक कथा के कहीं भी अस्त नहीं हुआ है, बल्कि अधिक तेजोमय होकर प्रकट हुआ है। यद्यपि कवि एक खण्ड प्रबन्ध-लेखन के लिए प्रतिबद्ध है किन्तु वैसा होते हुए भी उसकी काव्योन्मुक्तता बरकरार है। 'कालजयी' पर अपने युग की भरपूर छाया है और इसीलिए इसकी कई पंक्तियों में आपातकाल तथा आपातकालोत्तर स्थितियों को भी सुना जा सकता है, किन्तु ज्यादातर प्रतिपाद्य ऐसा है जो भारत को परिभाषित करता है और शाश्वत जीवन-मूल्यों के प्रति खोयी हुई जागरूकता को लौटाता है। पृष्ठ १४ पर कवि ने लिखा है-"भारत के लोग/गये बाहर लेकिन सेना लेकर न गये; / वे जहां गये इसलिए प्रेम के पौधे पनपे नये-नये"। इसी तरह पृष्ठ २८ पर "और हर राजा का लोकाभिमुख होना ही उसकी महत्ता है कदाचित् सबमें बड़ी-"। और पृष्ठ ५२ की ये पंक्तियाँ तो शिलालेख ही हैं : “अहंकार रह जाए अजन्मा/द्विज हो जाएँ हम, यह मानव का भाग्य/कि ऐसा हो पाता है कम"। पृष्ठ ७८ में कवि संकल्पित हुआ है : “मैं करके देखूगा, दिखलाऊँगा/कभी गीत जो आगामी पीढ़ी गायेगी/मैं उनका आरम्भ करूँगा, मुक्त कण्ठ उनको गाऊँगा"। इसी रौ में-“ठीक कहती हो बड़ा है आदमी/हर बुराई से लड़ा है आदमी/किन्तु वह आड़े न आया युद्ध के बुद्ध तक के वचन/बंध कर रह गये उपदेश में व्याप्त करना है उन्हें अब जगत्-भर में"। (पृष्ठ ८९)। इस तरह भारतीय साहित्य प्रकाशन ने इस एक कृति को प्रकाशित कर न केवल शिक्षा-जगत् को उपकृत किया है वरन् एक ऐसी आवश्यकता को पूरा किया है, जो सामयिक है, और चिरन्तन महत्त्व की भी है। क्या भवानी भाई की इस एक कृति को केन्द्र, और राज्य सरकारें हजारों-हजार खरीद तीर्थंकर : अप्रैल ७९/४१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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