Book Title: Tirthankar 1978 11 12
Author(s): Nemichand Jain
Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore

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Page 268
________________ लेकिन प्रश्न उठता है कि नाटक में महावीर के सघन आभ्यन्तर संघर्ष का चित्रण कम क्यों है ? उसके चित्रण ने महावीर को अधिक स्मरणीय और विश्वसनीय बना दिया होता । वास्तविक महावीर के जीवन में आभ्यन्तर संघर्ष नहीं रहा होगा, क्योंकि उन्होंने सोच-विचार कर समझदारी और सहमति से संन्यास का निर्णय लिया था; लेकिन नाटक में सत्य की अपेक्षा सम्भाव्य सत्य अधिक महत्त्वपूर्ण होना चाहिये। मैं सोचता हूँ कि भीतर की लड़ाई भी 'जयवर्धमान' का एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा होना चाहिये था। इसके लिए स्वीकृत जैन साहित्य परम्पराओं के विरुद्ध जाना पड़ता है तो भी जाना चाहिये था। रामकुमार जी में स्वीकृत परम्पराओं के विरुद्ध जाने का साहस है । यह उनके कई अन्य नाटकों से ही नहीं 'जयवर्धमान' से भी सिद्ध होता है। महावीर के आजीवन अविवाहित रहने की दिगम्बर जैन परम्परा को उन्होंने प्रस्तुत नाटक के लिए स्वीकृत नहीं किया है; इसलिए यह सोचा जा सकता है कि शायद अपने किसी एक और नाटक के लिए डॉ. वर्मा महावीर की भीतरी लड़ाई को सुरक्षित रखे हुए हैं। 'जयवर्धमान' में वे सारी खूबियाँ हैं जिनके लिए डॉ. रामकुमार वर्मा के नाटक विख्यात हैं । पाँच अंकों का पूर्णकालिक नाटक होने के बावजूद एकांकी की - सी चुस्ती, प्रतीकों का प्रयोग केवल आवश्यक पात्रों की योजना, महावीरयुगीन परिवेश, उस परिवेश का आभास देने के लिए कई पारिभाषिक शब्दों के बावजूद भाषा की सरलता, नाटक की समूची योजना में रंगसन्दर्भ का ध्यान 'जयवर्धमान' की उल्लेखनीय विशेषताएँ हैं। तीसरे और चौथे अंकों में अभूतपूर्व रंगसंभावनाएँ हैं। तीसरे अंक में त्रिशला सुनीता के साथ उन राजकुमारियों के चित्रों को देखती हैं जो वर्धमान के विवाह के लिए प्रस्तावित हैं। हर चित्र पर टिप्पणी करती हुईं वे कुछ चित्रों का चयन करती हैं। चौथे अंक में संन्यास के पूर्व वर्धमान और उनकी पत्नी यशोदा की एकान्त भेंट है। एक विनीत सहधर्मिणी के रूप में यशोदा को नाटककार ने अशेष सहानुभूति के साथ चित्रित किया है । वर्धमान ने विवाह के रत्नहार, को तालाब में विसर्जित कर दिया है। प्रतीक रूप में यह यशोदा से मुक्त होने की भूमिका है; इसलिए यशोदा ठीक ही कहती है- 'तब तो मुझे अपने माता-पिता के पास लौट जाना चाहिये । ओह मैं बहुत अशान्त हो गयी हूँ प्रियतम ! यदि द्रष्टि की ऐसी ही गति रही तो किसी दिन मैं भी विसर्जित हो सकती हूँ ।' लेकिन शीघ्र ही दण्डाधिकारी एक ऐसी स्त्री को लेकर उपस्थित होते हैं जो भूख से तड़पते अपने बच्चों को एक धनी परिवार के द्वार पर छोड़कर आत्महत्या के लिए प्रयत्नशील है । दण्डाधिकारी उसे वर्धमान द्वारा विसर्जित रत्नहार की चोरी के अपराध में पकड़ कर लाये हैं । यशोदा का दुःख से यह पहला साक्षाकार है। उसकी आँखें खुल जाती हैं और वह संसार के दुःख निवारण के लिए वर्धमान के संन्यास लेने से सहमत हो जाती हैं । यहाँ फिर नाटककार ने प्रतीक के द्वारा ही यशोदा की परिवर्तित मनःस्थिति सूचित की है । यशोदा दण्डाधिकारी से तीर्थंकर : अप्रैल ७९/४४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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