Book Title: Tirthankar 1978 11 12
Author(s): Nemichand Jain
Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore

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Page 288
________________ इन्दौर डी.एच.1६२ म. प्र. लाइसेन्स नं. एल-६२ अप्रैल, 1979 (पहले से डाक-व्यय चकाये बिना भेजने की स्वीकृति प्राप्त) मनुष्य + प्रमाद=अज्ञानी मनुष्य-प्रमाद=ज्ञानी - यह मेरे पास है और यह नहीं है, यह मुझे करना है और यह नहीं करना है--इस तरह व्यर्थ की बकवास करने वाले पुरुष को उठाने वाला (काल) उठा ले जाता है; तो फिर प्रमाद कैसा? 0 इस जगत् में ज्ञान आदि सारभूत अर्थ हैं। जो पुरुष सोते हैं, उनके वे अर्थ नष्ट हो जाते हैं; अतः सार्थकता के लिए अनवरत जागरूक तथा अप्रमत्त रहना चाहिये। [. आशुप्रज्ञ पण्डित सोये हुओं के बीच भी जागता है। वह प्रमाद में भरोसा नहीं करता। महत बड़े निठर होते हैं; शरीर दुर्बल है, अतः अप्रमत विचरण करना चाहिये। - प्रमाद का अपर नाम आस्रव है और अप्रमाद के लिए अन्य समानार्थक शब्द संवर है। इसके न होने से पुरुष पण्डित (ज्ञानी) होता है और होने से बाल (अज्ञानी) कहा जाता है। 0 मेधावी पुरुष लोभ और मद से अतीत तथा असन्तोष के निकट होते हैं। 0 प्रमत्त को सब ओर से भय होता है, अप्रमत्त अभीत होता है। प्रमादी सुखी नहीं हो सकता, निद्रालु विद्याभ्यासी नहीं हो सकता, ममत्व रखने वाला वैराग्यवान् नहीं हो सकता, और हिंसक दयालु नहीं हो सकता। 0 जो जागता है उसकी बुद्धि बढ़ती है; जो सोता है, वह धन्य नहीं है, धन्य वस्तुतः वह है जो आठों याम भीतर की आँख खुली रखता है। [श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी (राजस्थान) द्वारा प्रचारित ] Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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