Book Title: Tirthankar 1977 11 12 Author(s): Nemichand Jain Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore View full book textPage 9
________________ कि वे पशु नहीं हैं, मनुष्य हैं, और उन्हें उसी शैली-सलीके से अपना जीवन जीना चाहिये । मनुष्य को मनुष्य की भूमिका से स्खलित होने पर जो लोग उसे पुनः मनुष्य की भूमिका में वापस ले आते हैं, संत कहलाते हैं। मुनिश्री केवल जैन मुनि नहीं थे, मनुजों में महामनुज थे, वे त्याग और समर्पण के प्रतीक थे, निष्कामता और निश्छलता के प्रतीक थे, निर्लोभ और निर्वेर, अप्रमत्तता और साहस, निर्भीकता और अविचलता की जीती-जागती मूर्ति थे, क्या यह सच नहीं है कि ऐसा मनस्वी संत पुरुष हजारों-हज़ार वर्षों में कभी-कभार कोई एक होता है, और बड़े भाग्योदय से होता है । मुनि यदि वह केवल मुनि है तो उसका ऐसा होना अपर्याप्त है, चूंकि मुनि समाज से अपना कायिक पोषण ग्रहण करता है, उसे अपनी साधना का साधन बनाता है अतः उस पर समाज का जो ऋण हो जाता है, उसे लौटाना उसका अपना कर्तव्य हो जाता है, माना समाज इस तरह की कोई अपेक्षा नहीं करता (करना भी नहीं चाहिये), किन्तु जो वस्तुतः मुनि होते हैं, वे समाज के संबन्ध में चिन्तित रहते हैं और उसे अपने जीवन-काल में कोई-न-कोई आध्यात्मिक-नैतिक खुराक देते रहते हैं, यह खुराक प्रवचनों के रूप में प्रकट होती है। मुनिश्री चौथमलजी एक वाग्मी संत थे, वाग्मी इस अर्थ में कि वे जो-जैसा सोचते थे, उसे त्यों-तैसा अपनी करनी में अक्षरश: जीते थे । आज बकवासी संत असंख्य-अनगिन हैं, क्या हम इन्हें संत कहें ? । बाने में भले ही उन्हें वैसा कह लें, किन्तु चौथमल्ली कसौटी पर उन्हें संत कहना कठिन ही होगा । जिस कसौटी पर कसकर हम मुनिश्री चौथमलजी महाराज को एक शताब्दिपुरुष या संत कहते हैं, वास्तव में उस कसौटी की प्रखरता को बहुत कम ही सहन कर सकते हैं। उन जैसा युग-पुरुष ही समाज की रगों में नया और स्वस्थ लह दे पाया, अन्यों के लिए वह डगर निष्कण्टक नहीं है, कारण बहुत स्पष्ट है, उनकी वाणी और उनके चारित्र में एकरूपता थी ; जो जीभ पर था, वही जीवन में था; उसमें कहीं-कोई दुई नहीं थी, इसीलिए यदि हमें उस शताब्दि-पुरुष को कोई श्रद्धांजलि अर्पित करनी है तो वह अंजलि निर्मल-प्रामाणिक आचरण की ही हो सकती है, किसी शब्द या मुद्रित' ग्रन्थ या पुस्तक की नहीं । उस मनीषी ने साहित्य तो सिरजा ही, एक सांस्कृतिक सामंजस्य स्थापित करने के प्रयत्न भी किये । इस प्रयत्न के निमित्त वे स्वयं उदाहरण बने, चौ. ज. श. अंक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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