Book Title: Tirth Darshan Part 2
Author(s): Mahavir Jain Kalyan Sangh Chennai
Publisher: Mahavir Jain Kalyan Sangh Chennai

View full book text
Previous | Next

Page 229
________________ श्री नेमिनाथ भगवान-लावण्य वसही वर्षों पूर्व ही योगीराज श्री विजयशान्तिसूरीश्वरजी ने यहाँ भयंकर जंगलों में तपश्चर्या की थी, व आबूगिरिराज के आजू-बाजू गांवों में प्रायः विचरते रहते थे । अनेकों राजा उनके भक्त थे, जिन्हें उपदेश देकर शिकार, मंदिरा व मांस, भक्षण आदि का त्याग करवाया था । श्री विजयशान्तिसूरीश्वरजी आबू के योगीराज के नाम से आज भी विख्यात हैं, जो विक्रम सं. 1999 आश्विन कृष्णा 10 के दिन श्री अचलगढ़ में देवलोक सिधारे । हिन्दू लोग भी इसे अपना मुख्य तीर्थ स्थान मानते हैं । यहाँ के जंगलों में वनस्पतियों का भण्डार है । जंगलों में अनेकों जैनेतर मुनिगण भी तपस्या करते हैं। भारत के मुख्य पहाड़ी स्थलों में यह भी एक है। यहाँ पर प्राकृतिक दृश्यों से ओतप्रोत अति ही रोचक अद्वितीय अनेकों स्थान हैं जिन्हें देखते ही मन प्रफुल्लित हो उठता है । यहाँ की आबहवा स्वास्थ्य के लिए अति उत्तम है । गर्मी के दिनों में हमेशा हजारों पर्यटक देश-विदेश से आते हैं, इस ढंग का पहाड़ी स्थल कम जगह पाया जाता है । यह स्थान धार्मिक दृष्टि से अपनी प्राचीनता आदि के लिए तो प्रसिद्ध है ही लेकिन शिल्प कला में भी विश्व में अपना विशेष स्थान रखता है । यहाँ के विमलवसही व लावण्यवसही मन्दिरों में संगमरमर के पाषाण पर की शिल्पाकृतियाँ अजोड़, अनुपम, और महीन एक से एक बढ़कर, अति आकर्षक है । इस विश्व विख्यात विमलवसही व लावण्यवसही के निर्माता मंत्री श्री विमलशाह व वस्तुपाल तेजपाल हैं। ___ मंत्री श्री विमलशाह, वीर महान योद्धा, प्रख्यात धनुर्धरी व प्रबल प्रशासक गुर्जर नरेश भीमदेव के मंत्री व सेनापति थे । उनहोंने पाटण के धनाढ्य सेठ की कन्या श्रीदत्ता से विवाह किया था । प्रोढ़ावस्था में विमलशाह चन्द्रावती नगरी में गवर्नर की हैसियत से रहते थे । उनकी पत्नी बुद्धिमती व धर्मपरायणा श्राविका थी । जब प्रखर विद्वान महान आचार्य श्री धर्मघोषसूरिजी चन्द्रावती पधारे तब आचार्य श्री ने समराँगणों में किये दोषों के प्रायश्चित स्वरुप प्राचीन अर्बुदाचल तीर्थ के उद्धार करवाने की प्रेरणा दी। उन्होंने श्री भीमदेव आदि से विचारविमर्श करके मन्दिर बनवाने हेत यह जगह पसन्द की । परन्तु यहाँ के ब्राह्मणों द्वारा यहाँ जैन तीर्थ बनवाने का विरोध किया गया । उनका कहना था कि पहिले यहाँ जैन मन्दिर था, यह साबित किया जाय । श्री विमलशाह चाहते तो अपनी सत्ता के बल से चाहे जो कर सकते थे, परन्तु उनका हमेशा कहना था कि प्रजा को संतोष हो वैसा कार्य किया जाय । इसलिए श्री विमलशाह ने तीन उपवास करके श्री अम्बिकादेवी की आराधना की जिससे उनको यहाँ पर चंपक वृक्ष के पास श्री आदीश्वर प्रभु की श्याम वर्ण प्राचीन प्रतिमा रहने का संकेत मिला व शोध करने पर विशालकाय भव्य प्रतिमा प्राप्त हुई, जो कि सहस्रों वर्ष प्राचीन मानी जाती है । वह अभी विमल वसही मन्दिर में विद्यमान है । (इस प्रतिमा को श्री मुनिसुव्रत स्वामी की प्रतिमा भी कहते हैं) । विमलशाह ने तुरन्त निर्माण कार्य प्रारंभ किया व 18 करोड़ 53 लाख रुपये खर्च करके इस मन्दिर का निर्माण करवाया । इस कार्य में 14 वर्ष लगे, व 1500 कारीगर एवं 1200 मजदूर काम करते थे । पत्थर, अम्बाजी गांव के पास आरासणा पहाड़ी से हाथियों पर लाया जाता था । निर्माण कार्य सुसम्पन्न होने पर प्रतिष्ठा महान आचार्य श्री धर्मघोषसूरिजी के सुहस्ते विक्रम सं. 1088 में सुसम्पन्न हुई । इस मन्दिर का नाम विमलवसही रखा गया । लावण्यवसही के निर्माता राजा श्री वीरधवल के मंत्री श्री वस्तुपाल तेजपाल बंधुओं ने गुजरात की डगमगाती 465

Loading...

Page Navigation
1 ... 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248