Book Title: Tattvasara
Author(s): Hiralal Siddhantshastri
Publisher: Satshrut Seva Sadhna Kendra

View full book text
Previous | Next

Page 8
________________ प्रस्तावना तत्त्वसार का सार आचार्य देवसेनने पंच परमेष्ठीरूप परगत तत्त्वके ध्यानको साक्षात् तो पुण्यका कारण और परम्परासे मोक्षका कारण कहा है। (देखो गाथा 4) उन्होंने आत्म-चिन्तन रूप स्वगत तत्त्वके भी दो भेद किये हैं-सविकल्प और निर्विकल्प / इनमें सविकल्प तत्त्वको विकल्प युक्त होनेके कारण सास्रव अर्थात् कर्मोके आस्रवसे युक्त कहा है और निर्विकल्प तत्त्वको संकल्प विकल्पों से रहित होनेके कारण निरास्रव अर्थात् कर्मोके आस्रवसे रहित कहा है। (गाथा 5) यहाँ यह ज्ञातव्य है कि टीकाकारने इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जघन्य आराधकको आदि लेकर तारतम्यके क्रमसे दशम गुणस्थानवर्ती सूक्ष्मसाम्यराय संयत तक सविकल्प आत्म-चिन्तन होता है, अतः वह मोहकमके सद्भाव बने रहने तक सास्रव है। ग्यारहवें गुणस्थानमें मोहकर्मका उपशम होनेसे तथा बारहवें गुणस्थानमें मोहकर्मका सर्वथा क्षय हो जानेके कारण यहाँ निर्विकल्प रूप जो आत्मध्यान है, वह निरास्रव है। केवल एक सातावेदनीय प्रकृतिका आस्रव होता है, सो वह एक समयकी स्थिति बाला है अतः आनेके साथ ही निर्जीण हो जानेसे आस्रवमें गिना नहीं गया है। निर्विकल्प ध्यानके लिए इन्द्रियोंका अपने विषयोंसे विराम लेना सबसे पहिले आवश्यक है / जब इन्द्रियोंकी विषय-प्रवृत्ति रुकेगी, तब मनकी चंचलता रुकेगी और मनकी चंचलता रुकने से सर्व प्रकारके संकल्प विकल्प रुकेंगे। संकल्प-विकल्पोंके नष्ट होने पर ही निर्विकल्प निश्चल स्थायी शुद्ध स्वभाव प्रकट होगा / (गाथा 6-7) यह सम्पूर्ण ग्रन्थका अर्थात् तत्त्वसारका सार है। - आत्माके उस निर्विकल्प रूप शुद्ध स्वभावका नाम निश्चय सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र है और उसे ही. शुद्ध चेतना भी कहा जाता है / (गाथा 8) वह निर्विकल्प तत्त्व ही सार है और वही मोक्षका कारण है। यह जानकर ध्याता पुरुषको निर्ग्रन्थ होकर उस विशुद्ध तत्त्वका ध्यान करना चाहिए / (गाथा 9) . __ निर्ग्रन्थ किसे कहते हैं ? इस प्रश्नका उत्तर देते हुए आचार्य देवसेन कहते हैं कि जिसने मन, वचन, कायसे बाहिरी और भीतरी सब प्रकारके ग्रन्थ (परिग्रह) का त्याग कर नग्न दिगम्बर रूप जिनलिंग धारण कर लिया है ऐसे श्रमणको निम्रन्थ कहते हैं। बाहिरी परिग्रह दश प्रकार का है-१ क्षेत्र (खेत), 2 वास्तु (मकान), 3 हिरण्य (चांदी), 4 सुवर्ण (सोना), 5 धन (गाय-भैंस आदि), 6 धान्य (गेहूँ आदि अन्न), 7 दासी (नौकरानी), 8 दास (नौकर-चाकर), 9 कुप्य (वस्त्र) और 10 भाँड (बर्तनादि) / अन्तरंग परिग्रह चौदह प्रकारका कहा गया है-१ मिथ्यात्व, 2 क्रोध, 3 मान, 4 माया, 5 लोभकषाय, 6 हास्य, 7 रति, 8 अरति, 9 शोक, 10 भय, 11 जुगुप्सा, 12 स्त्री वेद, 13 पुरुष वेद और 14 नपुंसक वेद / इन बहिरंग और अन्तरंग रूप चौबीस प्रकारके परिग्रहका त्रियोगसे त्याग करने पर ही निर्ग्रन्थ संज्ञा प्राप्त होती है / (गाथा 10) - निर्ग्रन्थ लिंग धारण कर लेनेके पश्चात् भी ध्यान करने वाले योगीको भिक्षा, वसतिका आदिके लाभ या अलाभमें, सुख-दुःखमें, जीवन-मरणमें और शत्रु-मित्रमें समान बुद्धि रखना आव: श्यक है, तभी वह ध्यान करनेमें समर्थ हो सकता है, अन्यथा नहीं। (गाथा 11) ___ आगे आचार्य देवसेन कहते हैं कि यदि तुम शाश्वत मोक्ष सुखकी इच्छा करते हो तो परमें राग, द्वेष, मोहका त्याग कर सदा ध्यानका अभ्यास करो और अपनी शुद्ध आत्माको थ्याओ। (गाथा 16)

Loading...

Page Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 ... 198