Book Title: Tattvarthvarttikam Part 1 Author(s): Bhattalankardev, Mahendramuni Publisher: Bharatiya Gyanpith View full book textPage 9
________________ चुणि: - यस्येदमात्मनोऽनन्यसामान्यनिरवद्यविद्याविभवोपवर्णनमाकर्ण्यते- राजन् साहसतुरंग सन्ति बहवः श्वेतातपत्राः नृपाः किन्तु त्वत्सदृशा रणे विजयिनस्त्या गोन्नता दुर्लभाः । तद्वत्सन्ति बुधा न सन्ति कवयो वादीश्वरा वाग्मिनो नानाशास्त्रविचारचातुरधियः काले कलो मद्विधाः || १ || राजन् ! सर्वारिदर्पप्रविदलनपटुस्त्वं यथात्र प्रसिद्धस्तद्वत्ख्यातोऽहमस्यां भुवि निखिलमदोत्पाटने पण्डितानाम् । नोवेदेषोऽहमेते तव सदसि सदा सन्ति सन्तो महान्तो वक्तु ं यस्यास्ति शक्तिः स वदतु विदिताशेषशास्त्रो यदि स्यात् ॥ २॥ नाहङ्कारवशीकृतेन मनसा न द्वेषिणा केवलं नैरात्म्यं प्रतिपद्य नश्यति जने कारुण्यबुद्धया मया । राज्ञः श्री हिमशीतलस्य सदसि प्रायो विदग्धात्मनो बोद्धोघान् सकलान् विजित्य सुगत: ( स घटः ) पादेन विस्फोटितः || ६ || अर्थात् -' जिसने गुप्तरूप से घट में अवतारित तारादेवी को बोद्धों सहित परास्त किया, सिंहासन के भाग से पीडित मिथ्यादृष्टि देवों ने भी जिसकी सेवा की, और मानो अपने दोषों का प्रायश्चित करने ही के लिए बौद्धों ने जिसके चरण-कमल की रज में स्नान किया, उस कृती अकलंक की प्रशंसा कौन कर सकता है ?" सुना जाता है कि उन्होंने अपने असाधारण निरवद्य पांडित्य का वर्णन इस प्रकार किया था - 'राजन् साहसतुरंग ! श्वेत छत्र के धारण करने वाले राजा बहुत से हैं किन्तु आपके समान रणविजयी और दानी राजा दुर्लभ हैं । इसी तरह पण्डित तो बहुत से हैं किन्तु मेरे समान नानाशास्त्रों के जानने वाले कवि, वादी औन वाग्मी इस काल में नहीं हैं। राजन्, जिस प्रकार समस्त शत्रुओं के अभिमान को नष्ट करने में तुम्हारा चातुर्यं प्रसिद्ध है उसी प्रकार विद्वानों के मद को जड़ मूल से उखाड़ फेकने में मैं पृथ्वी पर ख्यात हूं । यदि ऐसा नहीं है तो आपकी सभा में बहुत से विद्वान मौजूद उनमें से यदि किसी की शक्ति हो और वह समस्त शास्त्रों का पारगामी हो तो मुझ से शास्त्रार्थ करे । राजा हिमशीतल की सभा में समस्त विद्वानों को जीत कर मैंने तारादेवी के घड़े को पैर से फोड़ दिया । सो किसी अहंकार या द्वेष की भावना से मैंने ऐसा नहीं किया, किन्तु नैरात्म्यवाद के प्रचार से जनता को नष्ट होते देखकर करुणा बुद्धि से ही मुझे वैसा करना पड़ा ।' उक्त प्रशस्ति का 'तारा येन विनिर्जिता' आदि श्लोक तो प्रशस्तिकार का ही रचा हुआ प्रतीत होता है । किन्तु शेष तीन पद्य पुरातन हैं और प्रशस्तिकार ने उन्हें जनश्रुति के आधार पर प्रशस्ति में सम्मिलित किया है । इससे कथाओं में वर्णित अकलंक के शास्त्रार्थ की कथा - प्रशस्ति-लेखन का समय शक सं. २०५० से भी प्राचीन प्रमाणित होता है । श्रवणबेलगोल के एक अन्य शिलालेख में भी अकलंक का स्मरण इस प्रकार किया गया है--- भट्टा कलङ्कगोsकृत सौगतादिदुर्वाक्यपङ्कः सकलङ्कभूतम् । जगत्स्वनामेव विधातुमुच्चैः सार्थं समन्तादकलङ्कमेव ||२१|| - विन्ध्यगिरि पर्वत का शिलालेख नं. १०५ । ( २ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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