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में उस काल में उनकी कृति के उद्धरण धवला में पाया जाना संभव नहीं क्योंकि ग्रन्थ की ख्याति समय सापेक्ष होती है ।
इसके सिवाय धवला में 'इति' के अनेक अर्थ बतलाने के लिए एक श्लोक उद्धृत किया है जो धनंजयकृत अनेकार्थ नाममाला का है, इसी नाममाला में 'प्रमाणमकलकस्य' लिखकर अकलंक के प्रमाण, पूज्यपाद के लक्षण तथा धनंजय के द्विसंधानकाव्य को अपश्चिम कहा है अर्थात् उनके समान बाद में ऐसा कोई नहीं लिख सका ।
इसका मतलब हुआ कि धवलाकार के पूर्ववर्ती धनंजय कवि के समय में अकलंक देव के प्रमाणशास्त्र की सुख्याति फैल चुकी थी । अतः यदि अकलंक का समय शक सं. ७०० माना जाता है तो यह सम्भव नहीं है । उनके शास्त्रार्थ का समय विक्रम संवत् ७०० ही होना चाहिये ।
श्वेताम्बराचार्य हरिभद्र सूरि के दार्शनिक प्रकरणों पर अकलंक का प्रभाव परिलक्षित होता है । उनकी अनेकान्त जयपताका और अकलंक के तत्त्वार्थवार्तिक के कई स्थल परस्पर में मेल खाते । बौद्धों के प्रत्यक्ष के लक्षण' कल्पनापोढ़ की निराकरण शैली और भाव में तत्त्वार्थवार्तिक में विहित निराकरण की स्पष्ट झलक है तथा अकलंक की अष्टशती का भी अनुसरण उसमें पाया जाता है। एक स्थल पर तो 'इति अकलंक न्यायानुसारि चेतोहरं वचः' स्पष्ट लिखा है। 3 हरिभद्र सूरि का समय विक्रम संवत् ७५७-८२० निश्चित है | अतः अकलंक का समय इससे पूर्व होना चाहिये ।
श्वेताम्बराचार्य सिद्धसेन गणि ने तत्त्वार्थ भाष्य की टीका में अकलंक देव के सिद्धि-विनिश्चय का तो उल्लेख किया ही है, तत्त्वार्थवार्तिक के कई दार्शनिक मन्तव्यों को भी अपनाया है। सूत्र ५ २४ की व्याख्या में अकलंक देव ने प्रतिबिम्ब का विचार किया है, गणि जी ने भी उसी स्थल पर उसकी चर्चा की है । तत्त्वार्थवार्तिक में ४-४२ सूत्र की व्याख्या में सप्तभंगी का वर्णन करते हुए काल, आत्मा आदि की जो चर्चा की है गणि जी ने भी ५-३१ की व्याख्या में उसे थोड़े से शाब्दिक परिवर्तन के साथ सम्मिलित किया है । ४-४२ सूत्र की ही व्याख्या के अन्त में अकलंक देव ने विकलादेश में सप्तभंगी का प्रतिपादन करते हुए जो प्रचित, अप्रचित तथा अर्थनय और शब्दनय का उल्लेख करते हुए नययोजना की है, गणिजी ने ५-३१ की व्याख्या में वह सब सम्मिलित कर लिया है । अतः अकलंकदेव गणिजी के पूर्ववर्ती थे । गणिजी का समय आठवीं शताब्दी माना जाता है । अतः अकलंक को आठवीं शताब्दी का विद्वान न मानकर ईसा की सातवीं शताब्दी का विद्वान मानना चाहिए ।
['तत्त्वार्थवार्तिक' के प्रथम संस्करण में उस समय ग्रन्य-सम्पादक ( स्व . ) पं. महेंद्र कुमार न्यायाचार्य से प्रस्तावना प्राप्त नहीं हो सकी होगी, अतः इसके पुनर्मुद्रण के अवसर पर यह बहुत आवश्यक हो गया कि इसका प्रधान सम्पादकीय कुछ इस प्रकार का हो जो प्रस्तावना का भी कार्य करे । यही प्रयास यहाँ पर किया गया है । ]
१. अनेका० ज० २०२ और तत्त्वार्थ०, ३६ । २. अष्टसहस्री सं० पृ० ११६, और अने० ज ४.१२२ । ३. अनेका० ज० पृ० २५३
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कैलाशचन्द्र शास्त्री
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