Book Title: Tattvarthadhigam Sutra Part 01
Author(s): Bhavyadarshanvijay
Publisher: Shripalnagar Jain S M Derasar Trust
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________________ " सम्यक्त्वज्ञानशीलानि, तपश्वेतीह सिद्धये / तेषामुपग्रहार्थाय, स्मृतं चीवरधारणम् // 1 // जटी कूर्ची शिखी मुण्डी, चीवरी नन एव च / तप्यन्नपि तपः कष्टं, मौव्याद्धिंस्रो न सिद्धयति // 2 // सम्यग्ज्ञानी दयावांस्तु, ध्यानी यस्तप्यते तपः / नमश्चीवरधारी वा, स सिद्धयति महामुनिः // 3 // " इति वाचकवचनं श्रीउत्तराध्ययनस्य श्रीशान्त्याचार्यकृत( अ० 2, पत्रा० 93 )चौ " उक्तं च वाचकैः शीतवातातपैदशै-मशकैश्चापि खेदितः। मा सम्यक्त्वादिषु ध्यानं, न सम्यक् संविधास्यति // 1 // " -श्रीशान्त्याचार्यकृतश्रीउत्तराध्ययनसूत्र(अ० 2, पत्रा० ९५)वृत्तौ "सूरिभिरुक्तम् धर्मोपकरणमेवैतव, न तु परिग्रहस्तथा // जन्तवो बहवः सन्ति, दुर्दी मांसचक्षुषाम् / तेभ्यः स्मृतं दयार्थ तु, रजोहरणधारणम् // 1 // आसने शयने स्थाने, निक्षेपे ग्रहणे तथा / गात्रसंको(कु)चने चेष्टं, तेन पूर्व प्रमार्जनम् // 2 // तथा सन्ति सम्पातिमाः सत्त्वाः, सूक्ष्माश्च व्यापिनोऽपरे / तेषां रक्षानिमित्तं च, विज्ञेया मुखवत्रिका // 3 // किन भवन्ति जन्तवो यस्मा–दनपानेषु केषुचित् / तस्मात् तेषां परीक्षार्थ, पात्रग्रहणमिष्यते // 4 // अपरश्च सम्यक्त्वज्ञानशीलानि, तपश्चेतीह सिद्धये / तेषामुपग्रहार्थाय, स्मृतं चीवरधारणम् // 5 // शीतवातातपैर्दशै-मशकैश्चापि खेदितः। मा सम्यक्त्वादिषु ध्यानं, न सम्यक् संविधास्यति // 6 //
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