Book Title: Tattvartha Sutra Author(s): Umaswati, Umaswami, Kailashchandra Shastri Publisher: Prakashchandra evam Sulochana Jain USA View full book textPage 4
________________ D:\VIPUL\BO01.PM65 (4) तत्त्वार्थ सूत्र +++++++++++++ अध्याय प्रस्तावना प्रस्तुत सूत्र ग्रन्थ जैन साहित्य का आद्य सूत्र ग्रन्थ तो है ही, संस्कृत जैन साहित्य का भी यह आद्य ग्रन्थ है। उस समय तक जैन साहित्य प्राकृत भाषा में ही पाया जाता था तथा उसी में नये साहित्य का सृजन होता था । इस ग्रन्थ के रचयिता ने संस्कृत भाषा में रचना करने का ओंकार किया और समस्त जैन सिद्धान्त को सूत्रों में निबद्ध करके गागर में सागर को भरने की कहावत को चरितार्थ कर दिखाया। यह संकलन इतना सुसम्बद्ध और प्रामाणिक साबित हुआ कि भगवान महावीर की द्वादशाङ्ग वाणी की तरह ही यह जैन दर्शन का आधार स्तम्भ बन गया । न्याय दर्शन में न्याय सूत्रों को, वैशेषिक दर्शन में वैशेषिक सूत्रों को, मीमांसा दर्शन में जैमिनि सूत्रों को, वेदान्त दर्शन में बादरायण सूत्रों को और योग दर्शन में योग सूत्रों को जो स्थान प्राप्त है, वही स्थान जैन दर्शन में इस सूत्र ग्रन्थ को प्राप्त है। जैन धर्म के दोनों सम्प्रदायों में इसकी एक सी मान्यता और आदर है। दोनों सम्प्रदायों के प्रमुख आचार्यों ने इस पर महत्वपूर्ण टीका ग्रन्थ रचे हैं। इसके "प्रमाणनयैरधिगमः" सूत्र को आधार बनाकर अनेक दार्शनिकों ने प्रमाण शास्त्र का विवेचन किया है। दिगम्बर जैनों में तो इसके पाठ मात्र से एक उपवास का फल बतलाया है। यथा दशाध्याये परिच्छिने तत्त्वार्थे पठिते सति । फलं स्यादुपवासस्य भाषितं मुनिपुंगवे || अर्थात् इस अध्याय प्रमाण तत्वार्थ का पाठ करने पर उपवास का फल होता है ऐसा मुनि श्रेष्ठों ने कहा है । इस ग्रन्थ का प्रथम सूत्र "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग: " है जिसके द्वारा इसमें मोक्ष का मार्ग बतलाया गया है, यही इसका प्रधान विषय है । इसीसे इसको मोक्षशास्त्र भी कहते हैं । तथा दूसरा सूत्र है"तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्।" इसमें तत्त्वार्थ के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन बतलाकर आगे दसों अध्यायों में सात तत्त्वों का ही विवेचन क्रमवार किया है। अर्थात प्रथम चार अध्यायों में जीव तत्व का, पाँचवें अध्याय में अजीव तत्त्व का, छठे और सातवें अध्याय में आस्रव तत्त्व का, आठवें अध्याय में बन्ध तत्त्व का, नौवें अध्याय में संवर और निर्जरा तत्व का ******+++++++++++++ तत्त्वार्थ सूत्र +++++++++++++++अध्याय तथा दसवें अध्याय में मोक्ष तत्त्व का वर्णन है। इस पर से इस ग्रन्थ का वास्तविक नाम तत्त्वार्थ है। यही इसका मूल नाम है; क्योंकि इस ग्रन्थ की सबसे महत्वशाली तीन टीकाओं में से पहली टीका सर्वार्थसिद्धि को तत्त्वार्थवृत्ति, दूसरी टीका को तत्त्वार्थवार्तिक और तीसरी को तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक नाम उनके रचयिताओं ने ही दिया है। तथा तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक के रचयिता आचार्य विद्यानन्द ने तो अपनी आप्तपरीक्षा के अन्त में "तत्त्वार्थ शास्त्र" नाम से ही इस ग्रन्थ का उल्लेख किया है चूँकि यह ग्रन्थ सूत्र रूप में हैं इसलिए तत्त्वार्थ सूत्र नाम से ही इसकी ख्याति है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भी इसी नाम से इसकी ख्याति है । इस सम्प्रदाय में जो सूत्रपाठ प्रचलित है उस पर एक भाष्य भी है जिसे स्वोपज्ञ कहा जाता है । उस भाष्य के आरम्भिक श्लोकों में तथा प्रशस्तिमें भी उसका नाम "तत्त्वार्थाधिगम" दिया हुआ है । इससे इसे 'तत्त्वार्थाधिगम सूत्र' भी कहते हैं । तत्त्वार्थसूत्र एक ऐसा ग्रन्थ है जिसकी टीका लिखना टीकाकार के लिये एक महत् सौभाग्य की वस्तु है। इसी से जहाँ इस पर अनेक महत्त्वपूर्ण और साधारण संस्कृत टीकाएं रची गई हैं, हिन्दी टीकाएं भी अनेक हैं; फिर भी मेरा यह विचार हुआ कि इस ग्रन्थ पर हिन्दी में एक ऐसी टीका लिखी जानी चाहिये जिसमें सब संस्कृत टीकाओं की आवश्यक तथा उपयोगी बातें आ जायें। किन्तु जब मैंने लिखना प्रारम्भ किया तो मेरा विचार बदल गया और तब मैंने यह स्थित किया कि सूत्र के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए जो उपयोगी बातें हों वही दी जायें। तथा टीका इस ढंग से लिखी जाये कि वह तत्त्वार्थसूत्र पढ़ने वाले और सर्वार्थ सिद्धि पढ़ने वाले छात्रों के साथ ही साथ स्वाध्याय प्रेमियों के भी काम आ सके। अतः मैंने सूत्र का अर्थ तो तत्त्वार्थसूत्र पढ़ने वालों की दृष्टि रखकर लिखा है और विशेषार्थ तथा शङ्का समाधान प्रायः सर्वार्थसिद्धि पढ़ने वालों की दृष्टि से लिखे हैं । इसीसे विशेषार्थ से बाहर जो शंका समाधान हैं उन्हें अलग से दे दिया है। सर्वार्थसिद्धि की दार्शनिक चर्चाओं को छोड़कर उसकी प्राय: सभी सैद्धान्तिक चर्चाएं विशेषार्थों में आ गई हैं। दार्शनिक चर्चाओं को मैंने इसलिए छोड़ दिया है कि प्रथम तो उनका तत्त्वार्थसूत्र के साथ ऐसा सम्बन्ध नहीं है कि उनके बिना उसके मंतव्यों को समझने में कठिनाई हो । दूसरे, वे चर्चाएँ स्वाध्याय प्रेमियों की दृष्टि से उतनी उपयोगी नहीं हैं, जितनी गहन हैं। कहीं-कहीं एक दो बात तत्त्वार्थ राजवार्तिक से *** +++++VIII+++++++++++Page Navigation
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