Book Title: Tattva nirupana Author(s): Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf View full book textPage 5
________________ २६२ : डॉ॰ महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्यं स्मृति ग्रन्थ पर्याय है और द्रव्यास्रव पुद्गलगत । जिन कषायोंसे कर्म बँधते हैं वे जीवगत कषायादि भाव भावबंध हैं और पुद्गलकर्मका आत्मासे सम्बन्ध हो जाना द्रव्यबन्ध है । भावबन्ध जीवरूप है और द्रव्यबन्ध पुद्गलरूप | जिन क्षमा आदि धर्म, समिति, गुप्ति और चारित्रोंसे नये कर्मोंका आना रुकता है वे भाव भावसंवर हैं और कर्मोंका रुक जाना द्रव्यसंवर । इसी तरह पूर्वसंचित कर्मोंका निर्जरण जिन तप आदि भावोंसे होता है वे भाव भावनिर्जरा हैं और कर्मोंका झड़ना द्रव्यनिर्जरा है । जिन ध्यान आदि साधनोंसे मुक्ति प्राप्त होती है। वे भाव भावमोक्ष हैं और कर्मपुद्गलोंका आत्मासे सम्बन्ध टूट जाना द्रव्यमोक्ष है । तात्पर्य यह कि आसव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये पाँच तत्त्व भावरूपमें जीवकी पर्याय हैं। और द्रव्यरूपमें पुद्गल की । जिस भेदविज्ञानसे - आत्मा और परके विवेकज्ञानसे - कैवल्यकी प्राप्ति होती है। उस आत्मा और परमें ये सातों तत्त्व समा जाते । वस्तुतः जिस परकी परतन्त्रताको हटाना है और जिस स्वको स्वतन्त्र होना है उन स्व और परके ज्ञानमें ही तत्त्वज्ञानकी पूर्णता हो जाती है । इसीलिए संक्षेप में मुक्तिका मूल साधन 'स्वपर विवेकज्ञान' को बताया गया है । तत्त्वोंकी अनादिता भारतीय दर्शनोंमें सबने कोई-न-कोई पदार्थ अनादि माने ही हैं । नास्तिक चार्वाक भी पृथ्वी आदि महाभूतोंको अनादि मानता है। ऐसे किसी क्षणकी कल्पना नहीं की जा सकती, जिसके पहले कोई अन्य क्षण न रहा हो । समय कबसे प्रारम्भ हुआ और कब तक रहेगा, यह बतलाना सम्भव नहीं है । जिस प्रकार काल अनादि और अनन्त है और उसकी पूर्वावधि निश्चित नहीं की जा सकती, उसी तरह आकाशकी भी कोई क्षेत्रगत मर्यादा नहीं बताई जा सकती - "सर्वतो हि अनन्तं तत्" आदि अन्त सभी ओरसे आकाश अनन्त है । आकाश और कालकी तरह हम प्रत्येक सत्के विषयमें यह कह सकते हैं कि उसका न किसी खास क्षणमें नूतन उत्पाद हुआ है और न किसी समय उसका समूल विनाश ही होगा । "भावस्स णत्थि णासो णत्थि अभावस्स चेव उप्पादो ।" "नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः । " -भगवद्गीता २।१६ सत्का अत्यन्त विनाश ही होता अर्थात् — किसी असत्का सत् रूपसे उत्पाद नहीं होता और न किसी । जितने गिने हुए सत् हैं, उनकी संख्यामें न एककी वृद्धि हो सकती है और न एककी हानि । हाँ, रूपान्तर प्रत्येकका होता रहता है, यह एक सर्वमान्य सिद्धान्त है । इस सिद्धान्त के अनुसार आत्मा एक स्वतन्त्र सत् है और पुद्गलपरमाणु भी स्वतन्त्र सत् । अनादिकालसे यह आत्मा पुद्गलसे उसी तरह सम्बद्ध मिलता है जैसे कि खानिसे निकाला गया सोना मैलसे संयुक्त मिलता है । आत्माको अनादिबद्ध माननेका कारण - पंचास्तिकाय गा० १५ आज आत्मा स्थूल शरीर और सूक्ष्म कर्मशरीरसे बद्ध मिलता है । इसका ज्ञान संवेदन, सुख, दुःख और यहाँ तक कि जीवन-शक्ति भी शरीराधीन है। शरीर में विकार होनेसे ज्ञानतंतुओंमें क्षीणता आ जाती है और स्मृतिभ्रंश तथा पागलपन आदि देखे जाते हैं । संसारी आत्मा शरीरबद्ध होकर ही अपनी गतिविधि करता है । यदि आत्मा शुद्ध होता तो शरीरसम्बन्धका कोई कारण नहीं था । शरीरसम्बन्ध या पुनर्जन्मके कारण हैं - राग, द्वेष, मोह और कषायादिभाव । शुद्ध आत्मामें ये विभाव परिणाम हो ही नहीं सकते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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