Book Title: Tattva nirupana
Author(s): 
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 24
________________ ४/ विशिष्ट निबन्ध : २८१ साधनाओंके द्वारा कर्मोको बलात उदयमें लाकर बिना फल दिये झड़ा देना अविपाक निर्जरा है। स्वाभाविक क्रमसे प्रतिसमय कर्मोंका फल देकर झड़ते जाना सविपाक निर्जरा है। यह सविपाक निर्जरा प्रतिसमय हर एक प्राणीके होती ही रहती है। इसमें पुराने कर्मों की जगह नूतन कर्म लेते जाते हैं। गुप्ति, समिति और खासकर तपरूपी अग्निसे कर्मोको फल देनेके पहले हो भस्म कर देना अविपाक या औपक्रमिक निर्जरा है। 'कर्मोकी गति टल ही नहीं सकती' यह एकान्त नियम नहीं है। आखिर कर्म है क्या ? अपने पुराने संस्कार ही वस्तुतः कर्म हैं। यदि आत्मामें पुरुषार्थ है, और वह साधना करे; तो क्षणमात्रमें पुरानो वामनाएँ क्षीण हो सकती है। "नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि ।" अर्थात् 'सैकड़ों कल्पकाल बीत जानेपर भी बिना भोगे कर्मों का नाश नहीं हो सकता।' यह मत प्रवाहपतित साधारण प्राणियोंको लागू होता है। पर जो आत्मपुरुषार्थी माधक हैं उनकी ध्यानरूपी अग्नि तो क्षणमात्रमें समस्त कर्मोंको भस्म कर सकती है "ध्यानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते क्षणात् ।" ऐसे अनेक महात्मा हुए हैं, जिन्होंने अपनी साधनाका इतना बल प्राप्त कर लगा था कि साधु-दीक्षा लेते ही उन्हें कैवल्यकी प्राप्ति हो गई थी। पुरानी वासनाओं और राग, द्वेष तथा मोहके कुसंस्कारोंको नष्ट करनेका एकमात्र मुख्य साधन है-'ध्यान' अर्थात् चित्तको वृत्तियोंका निरोध करके उसे एकाग्र करना। इस प्रकार भगवान् महावीरने बन्ध ( दुःख ), बन्धके कारण ( आस्रव ), मोक्ष और मोक्षके कारण ( संवर और निर्जरा ) इन पाँच तत्वों के साथ-ही-साथ उस आत्मतत्त्वके ज्ञान की खास आवश्यकता बताई जिससे बन्धन और मोक्ष होता है । इसी तरह उस अजीव तत्वके ज्ञानकी भी आवश्यकता है जिससे बंधकर यह जीव अनादिकालसे स्वरूपच्युत हो रहा है। मोक्षके साधन वैदिक संस्कृतिमें विचार या तत्त्वज्ञानको मोक्षका साधन माना है जब कि श्रमणसंस्कृति चारित्र अर्थात् आचारको मोक्षका साधन स्वीकार करतो है । यद्यपि वैदिक संस्कृतिने तत्त्वज्ञा के साथ-ही-साथ वैराग्य और संन्यासको भी मुक्तिका अङ्ग माना है, पर वैराग्यका उपयोग तत्त्वज्ञानकी पुष्टिमें किया है, अर्थात् वैराग्यसे तत्त्वज्ञान पुष्ट होता है और फिर उससे मुक्ति मिलती है। पर जैन तीर्थंकरोंने "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।" (त० स० ११) सम्यग्दर्शग, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रको मोक्षका मार्ग बताया है। ऐसा सम्यग्ज्ञान जो सम्यकचारित्रका पोषक या वर्धक नहीं है, मोक्षका साधन नहीं होता । जो ज्ञान जीवनमें उतरकर आत्मशोधन करे, वही मोक्षका साधन है । अन्ततः सच्ची श्रद्धा और ज्ञानका फल चारित्र-शुद्धि ही है । ज्ञान थोड़ा भी हो, पर यदि वह जीवमशुद्धिमें प्रेरणा देता है तो मार्थक है। अहिंसा, संयम और तप साधनाएँ हैं, मात्र ज्ञान रूप नहीं हैं। कोरा ज्ञान भार ही है यदि वह आत्मशोधन नहीं करता । तत्वोंकी दृढ़ श्रद्धा अर्थात् सम्यग्दर्शन मोक्षमहलको पहिली सीढ़ी है। भय, आशा, स्नेह और लोभसे जो श्रद्धा चल और मलिन हो जाती है वह श्रद्धा अन्धविश्वासकी सीमामें ही है । जीवन्त श्रद्धा वह है जिसमें प्राणों तककी बाजी लगाकर तत्त्वको कायम रखा जाता है। उस परम अवगाढ़ दृढ़ निष्ठाको दुनियाका कोई भी प्रलोभन विचलित नहीं कर सकता, उसे हिला नहीं सकता। इस ज्योतिके जगते हो सावकको अपने लक्ष्यका स्पष्ट दर्शन होने लगता है । उसे प्रतिक्षण भेदविज्ञान और स्वानुभूति होता है। वह मानता है कि धर्म आत्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 22 23 24 25