Book Title: Tattva nirupana
Author(s): 
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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Page 23
________________ २८० : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ प्राणिमात्रको अभय देना । देश और समाज के निर्माण के लिए तन, धन आदिका त्याग । लाभ, पूजा और ख्याति आदिके उद्देश्यसे किया जानेवाला त्याग या दान उत्तम त्याग नहीं है । उत्तम आकिञ्चन्य -- अकिञ्च नभाव, बाह्य पदार्थोंमें ममत्वका त्याग । धन-धान्य आदि बाह्य परिग्रह तथा शरीरमें यह मेरा नहीं है, आत्माका धन तो उसके चैतन्य आदि गुण हैं, 'नास्ति मे किंचन' - मेरा कुछ नहीं, आदि भावनाएँ आकिञ्चन्य हैं । भौतिकतासे हटकर विशुद्ध आध्यात्मिक दृष्टि प्राप्त करना । उनम ब्रह्मचर्य - ब्रह्म अर्थात् आत्मस्वरूप में विचरण करना । स्त्री - सुखसे विरक्त होकर समस्त शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक शक्तियों को आत्मविकासोन्मुख करना । मनकी शुद्धि के बिना केवल शारीरिक ब्रह्मचर्य न तो शरीरको ही लाभ पहुँचाता है और न मन तथा आत्मामें ही पवित्रता लाता है । अपेक्षा सद्विचार, उत्तम भावनाएँ और आत्मचिन्तन अनुप्रेक्षा है । जग्रत्की अनित्यता, अशरणता, संसारका स्वरूप, आत्माका अकेला ही फल भोगना, देहको भिन्नता और उसकी अपवित्रता, रागादि भावोंकी हेयता, सदाचारकी उपादेयता, लोकस्वरूपका चिन्तन और बोधिकी दुर्लभता आदिका बार-बार विचार करके चित्तको सुसंस्कारी बनाना, जिससे वह द्वन्द्व दशामें समताभाव रख सके । ये भावनाएं चित्तको आस्रवकी ओरसे हटाकर संवरकी तरफ झुकाती हैं । परीषहजय साधकको भूख, प्यास, ठंडी, गरमी, डाँस मच्छर, चलने-फिरने - सोने आदिमें कंकड़, काँटे आदिको बाधाएँ, बध, आक्रोश और मल आदिकी बाधाओंको शान्तिसे सहना चाहिए । नग्न रहकर भी स्त्री आदिको देखकर प्रकृतिस्थ बने रहना, चिरतपस्या करनेपर भी यदि ऋद्धि-सिद्धि नहीं होती तो तपस्या के प्रतिअनादर नहीं होना और यदि कोई ऋद्धि प्राप्त हो जाय तो उसका गर्व नहीं करना, किसीके सत्कारना पुरस्कारमें हर्ष और अपमानमें खेद नहीं करना, भिक्षा-भोजन करते हुए भी आत्मा में दीनता नहीं आने दे इत्यादि परीषहोंके जयसे चारित्रमें दृढ़निष्ठा होती है और कर्मोंका आस्रव रुक कर संवर होता है । चारित्र अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहका संपूर्ण परिपालन करना पूर्ण चारित्र है । चारित्रके सामायिक आदि अनेक भेद हैं । सामायिक -- समस्त पापक्रियाओं का त्याग और समताभावकी आराधना । छेदोपस्थापना - व्रतोंमें • दूषण लग जानेपर दोषका परिहार कर पुनः व्रतों में स्थिर होना । परिहारविशुद्धिइस चारित्रके धारक व्यक्ति के शरोरमें इतना हलकापन आ जाता है कि सर्वत्र गमन आदि प्रवृत्तियाँ करनेपर भी उसके शरीरसे जीवोंकी विराधना - हिंसा नहीं होती । सूक्ष्मसाम्पराय - समस्त क्रोधादिकषायोंका नाश होनेपर बचे हुए सूक्ष्म लोभके नाशकी भी तैयारी करना । यथाख्यात - समस्त कषायोंके क्षय होनेपर जीवन्मुक्त व्यक्तिका पूर्ण आत्मस्वरूपमें विचरण करना । इस तरह गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्रसे कर्मशत्रुके आने के द्वार बन्द हो जाते हैं। यही संवर है । ६. निर्जरा तत्त्व गुप्ति आदिसे सर्वतः संवृत - सुरक्षित व्यक्ति आगे आनेवाले कर्मों को तो रोक ही देता है, साथ हो पूर्वबद्ध कर्मोंकी निर्जरा करके क्रमशः मोक्षको प्राप्त करता है। निर्जरा झड़नेको कहते हैं । यह दो प्रकार की है - एक औपक्रमिक या अविपाक निर्जरा और दूसरी अनोपक्रमिक या सविपाक निर्जरा । तप आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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