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४ । विशिष्ट निबन्ध : २७५
कष्ट पहुँचाना, दूसरे की निन्दा करना आदि जिस-जिस प्रकार के ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय आदि क्रियाओं में संलग्न होते हैं, उस उस प्रकारसे उन उन कर्मोंका आस्रव और बन्ध कराते हैं । जो क्रिया प्रधान होती है उससे उस कर्मका बन्ध विशेष रूपसे होता है, शेष कर्मोंका गौण । परभव में शरीरादिकी प्राप्ति के लिए आयु कर्मका आस्रव वर्तमान आयुके त्रिभागमें होता है । शेष सात कर्मोंका आस्रव प्रतिसमय होता रहता है। ५. मोक्षतत्त्व
बन्धन - मुक्तिको मोक्ष कहते हैं । बन्धके कारणोंका अभाव होनेपर तथा संचित कर्मोंकी निर्जरा होनेसे समस्त कर्मों का समूल उच्छेद होना मोक्ष है । आत्माकी वैभाविकी शक्तिका संसार अवस्था में विभाव परिणमन होता है । विभाव परिणमनके निमित्त हट जानेसे मोक्ष दशामें उसका स्वाभाविक परिणमन हो जाता है । जो आत्माके गुण विकृत हो रहे थे वे ही स्वाभाविक दशामें आ जाते हैं । मिथ्यादर्शन सम्यग्दर्शन बन जाता है, अज्ञान ज्ञान ज्ञान जाता है और अचारित्र चारित्र । इस दशामें आत्माका सारा नकशा ही बदल जाता है । जो आत्मा अनादिकाल से मिथ्यादर्शन आदि अशुद्धियों और कलुषताओंका पुञ्ज बना हुआ था, वही निर्मल, निश्चल और अनन्त चैतन्यमय हो जाता है । उसका आगे सदा शुद्ध परिणमन ही होता है । वह निस्तरंग समुद्रकी तरह निर्विकल्प, निश्चल और निर्मल हो जाता है। न तो निर्वाण दशामें आत्माका अभाव होता है और न वह अचेतन ही हो जाता है । जब आत्मा एक स्वतन्त्र मौलिक द्रव्य है, तब उसके अभावी या उसके गुणोंके उच्छेदकी कल्पना ही नहीं की जा सकती । प्रतिक्षण कितने ही परिवर्तन होते जाय, पर विश्व रंगमञ्चसे उसका समूल उच्छेद नहीं हो सकता ।
दीपनिर्वाणकी तरह आत्मनिर्वाण नहीं होता
बुद्ध से जब प्रश्न किया गया कि 'मरनेके बाद तथागत होते हैं या नहीं ?' तो उन्होंने इस प्रश्नको अव्याकृत कोटिमें डाल दिया था । यही कारण हुआ कि बुद्धके शिष्योंने निर्वाणके सम्बन्धमें अनेक प्रकारकी कल्पनाएँ कीं । एक निर्वाण वह जिसमें चित्तसन्तति निरास्रव हो जाती है, यानी चित्तका मैल धुल जाता हैं । इसे 'सोपधिशेष' निर्वाण कहते हैं । दूसरा निर्वाण वह, जिसमें दीपकके समान चित्तसंतति भी बुझ जाती
अर्थात् उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। यह 'निरुपधिशेष' निर्वाण कहलाता है । रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा और संस्कार इन पंच स्कन्धरूप आत्मा माननेका यह सहज परिणाम था कि निर्वाण दशामें उसका अस्तित्व न रहे । आश्चर्य है कि बुद्ध निर्वाण और आत्माके परलोकगामित्वका निर्णय बताये बिना ही मात्र दुःखनिवृत्तिके सर्वाङ्गीण औचित्यका समर्थन करते रहे ।
यदि निर्वाणमें चित्तसन्ततिका निरोध हो जाता है, वह दीपककी लौ को तरह बुझ जाती है, तो बुद्ध उच्छेदवादके दोषसे कैसे बच सके ? आत्मा के नास्तित्वसे इनकार तो वे इसी भयसे करते थे कि आत्माको नास्ति माना जाता है तो चार्वाककी तरह उच्छेदवादका प्रसंग आता है। निर्वाण अवस्था में उच्छेद मानने और मरणके बाद उच्छेद माननेमें तात्त्विक दृष्टिसे कोई अन्तर नहीं है। बल्कि चार्वाकका सहज उच्छेद सबको सुकर क्या अनायाससाध्य होनेसे सुग्राह्य होगा और बुद्धका निर्वाणोत्तर उच्छेद अनेक प्रकार के ब्रह्मचर्यवास और ध्यान आदिके कष्टसे साध्य होने के कारण दुर्ग्राह्य होगा । जब चित्तसन्तति भौतिक नहीं है और उसकी संसार-कालमें प्रतिसंधि ( परलोकगमन) होती है, तब निर्वाण अवस्थामें उसके समूलोच्छेदका कोई औचित्य समझमें नहीं आता । अतः मोक्ष अवस्थामें उस चित्तसंततिकी सत्ता मानना ही चाहिए, जो कि अनादिकालसे आस्रवमलोंसे मलिन हो रही थी और जिसे साधनाके द्वारा निरास्रव अवस्था में पहुँचाया
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