Book Title: Tattva nirupana
Author(s): 
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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Page 13
________________ २७० : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ कोड़ा, मकोड़ा, पशु, पक्षी आदि अनेक शरीरोंको धारण करती है और न जाने इसे कौन-कौन शरीर धारण करना पड़ेंगे । मनुष्योंमें जिन्हें हम नीच, अछुन आदि कहकर दुरदुराते हैं और अपनी स्वार्थपूर्ण सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक व्यवस्थाओं और बन्धनोंसे उन समानाधिकारी मनुष्योंके अधिकारोंका निर्दलन करके उनके विकासको रोकते हैं, उन नीच और अछनोंमें भी हम उत्पन्न हुए होंगे। आज मनमें दूसरोंके प्रति उन्हीं कुत्सित भावोंको जाग्रत करके उस परिस्थितिका निर्माण अवश्य ही कर रहे हैं जिससे हमारी उन्हीं में उत्पन्न होनेकी अधिक सम्भावना है। उन सूक्ष्म निगोदसे लेकर मनुष्यों तकके हमारे सीधे सम्पर्क में आनेवाले प्राणियोंके मलभत स्वरूप और अधिकारको समझे बिना हम उनपर करुणा, दया आदिके भाव ही नहीं ला सकते, और न समानाधिकारमलक परम अहिंसाके भाव ही जाग्रत कर सकते हैं। चित्तमें जब उन समस्त प्राणियोंमें आत्मौपम्यकी पुण्य भावना लहर मारती है तभी हमारा प्रत्येक उच्छ्वास उनकी मंगलकामनासे भरा हुआ निकलता है और इस पवित्र धर्मको नहीं समझनेवाले संघर्षशील हिंसकोंके शोषण और निर्दलनसे पिसती हुई आत्माके उद्धारकी छटपटाहट उत्पन्न हो सकती है । इस तत्त्वज्ञानकी सुवाससे ही हमारी परिणति परपदार्थोके संग्रह और परिग्रहकी दुष्प्रवृत्तिसे हटकर लोककल्याण और जीवसेवा की ओर झुकती है । अतः अहिंसाकी सर्वभूतमैत्रीकी उत्कृष्ट साधनाके लिए सर्वभूतोंके स्वरूप और अधिकारका ज्ञान तो पहले चाहिये ही । न केवल ज्ञान ही, किन्तु चाहिये उसके प्रति दृढ़ निष्ठा । इसी सर्वात्मसमत्वकी मलज्योति महावीर बननेवाले क्षत्रिय राजकुमार वर्धमानके मनमें जगी थी और तभी वे प्राप्तराजविभूतिको बन्धन मानकर बाहर-भीतरकी सभी गाँठे खोलकर परमनिर्ग्रन्थ बने और जगत में मानवताको वर्णभेदको चक्कीमें पीसनेवाले तथोक्त उच्चाभिमानियोंको झकझोरकर एक बार रुककर सोचनेका शीतल वातावरण उपस्थित कर सके। उनने अपने त्याग और तपस्याके साधक जीवनसे महत्ताका मापदण्ड ही बदल दिया और उन समस्त त्रासित, शोषित, अभिद्रावित और पीड़ित मनुष्यतनधारियोंको आत्मवत् समझ धर्मके क्षेत्रमें समानरूपसे अवसर देनेवाले समवसरणकी रचना की । तात्पर्य यह कि अहिंसाकी विविध प्रकारकी साधनाओंके लिए आत्माके स्वरूप और उसके मल अधिकार-मर्यादाका ज्ञान उतना ही आवश्यक है जितना कि परपदार्थोंसे विवेक प्राप्त करने के लिए 'पर' पुद्गलका ज्ञान । बिना इन दोनोंका वास्तविक ज्ञान हुए सम्यग्दर्शनकी वह अमरज्योति नहीं जल सकती, जिसके प्रकाशमें मानवता मुसकुराती है और सर्वात्मसमताका उदय होता है । इस आत्मसमानाधिकारका ज्ञान और उसको जीवन में उतारनेकी दृढ़ निष्ठा ही सर्वोदयकी भूमिका हो सकती है । अतः वैयक्तिक दुःखकी निवृत्ति तथा जगत में शान्ति स्थापित करने के लिए जिन व्यक्तियोंसे ना है उन व्यक्तियों के स्वरूप और अधिकारकी सीमाको हमें समझना ही होगा । हम उसकी तरफसे आँख मूंदकर तात्कालिक करुणा या दयाके आँसू बहा भी लें, पर उसका स्थायी इलाज नहीं कर सकते । अतः भगवान् महावीरने बन्धनमुक्तिके लिये जो 'बँधा है तथा जिससे बँधा है' इन दोनों तत्त्वोंका परिज्ञान आवश्यक बताया। बिना इसके बन्धपरम्पराके समलोच्छेद करनेका सङ्कल्प ही नहीं हो सकता और चारित्रके प्रति उत्साह ही हो सकता है । चारित्रकी प्रेरणा तो विचारोंसे ही मिलती है। २. अजीवतत्त्व जिस प्रकार आत्मतत्त्वका ज्ञान आवश्यक है, उसी प्रकार जिस अजीवके सम्बन्धसे आत्मा विकृत होता है, उसमें विभावपरिणति होती है उस अजीवतत्त्वके ज्ञान की भी आवश्यकता है। जब तक हम इस अजीवतत्त्वको नहीं जानेंगे तब तक 'किन दोमें बन्ध हुआ है' यह मल बात ही अज्ञात रह जाती है। अजीवतत्त्वमें धर्म, अधर्म, आकाश और कालका भले ही सामान्यज्ञान हो; क्योंकि इनसे आत्माका कोई भला बुरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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