Book Title: Suvarnabhumi me Kalakacharya Author(s): Umakant P Shah Publisher: Jain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras View full book textPage 7
________________ सुवर्णभूमि में कालकाचार्य अलग अलग आर्य कालक होने का कोई ईशारा भी नहीं दिया। यही कालक जो शक-कुल पारसकुल तक गये वही कालक सुवर्णभूमि तक भी जा सकते हैं। कालकाचार्य का यह विशिष्ट व्यक्तित्व था। हम आगे देखेंगे कि इस कालक का समय ई० स० पूर्व की पहली या दूसरी शताब्दी था। उस समय में भारत के सुवर्णभूमि और दक्षिण-चीन इत्यादि देशों से सम्बन्ध के थोडे उल्लेख मिलते हैं मगर कालक के सुवर्णभूमिगमन वाले वृत्तान्त की महत्ता अाज तक विद्वानों के सामने नहीं पेश हुई। ग्रीक लेखक टॉलेमी और पेरिप्लस ऑफ ध इरिथ्रीअन सी के उल्लेख से, जैन ग्रन्थ वसुदेव-हिण्डि में चारुदत्त के सुवर्णभूमिगमन के उल्लेख से, और महानिद्देस इत्यादि के उल्लेख से यह बात निश्चित हो चूकी है कि ईसा की पहिली दूसरी शताब्दियों में भारत का पूर्व के प्रदेशों (जैसे कि दक्षिण चीन, सियाम, हिन्दी चीन, बर्मा, कम्बोडिया, मलाया, जावा, सुमात्रा अादि प्रदेशों) से घनिष्ठ व्यापारी सम्बन्ध था। चारुदत्त की कथा का मूल है गुणाढ्य की अप्राप्य बृहत्कथा जिसका समय यही माना जाता है। बहुत सम्भवित है कि इससे पहिले अर्थात् ई० स० पूर्व की पहिली दूसरी शताब्दी में भी भारत का सुवर्णभूमि से सम्बन्ध शुरू हो चूका था। बक्ट्रिया में ई० स० पूर्व १२६ अासपास पहुंचे हुवे चीनी राजदूत चांग कीयेन (Chang Kien) की गवाही मिली है कि दक्षिण-पश्चिम चीन की बनी हुई बांस और रूई की चीजें हिन्दी सार्थवाहों ने सारे उत्तरी भारत और अफघानिस्तान के रास्ते से ले जा कर बॅक्ट्रिया में बेची थी। कालकाचार्य और सागरश्रमण के सुवर्णभूमि-गमन का वृत्तान्त हमारे राष्ट्रीय इतिहास में और जैनधर्म के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक निर्देश है। सुमात्रा के नज़दीक में वंका नामक खाड़ी है। डॉ० मोतीचन्द्रजी ने बताया है कि महानिद्देस में उल्लिखित वंकम् या बंकम् यही वंका खाड़ी का प्रदेश है। हमें एक अतीव सूचक निर्देश मिलता है जिसका महत्त्व बृहत्कल्पभाष्य के उपर्युक्त उल्लेख के सहारे से बढ़ जाता है। सब को मालूम है कि आर्य कालक निमित्तज्ञ और मन्त्रविद्या के ज्ञाता थे। श्राजीविकों से इन्हों ने निमित्तशास्त्र-ज्योतिष का ज्ञान पाया था ऐसे पञ्चकल्पभाष्य और पञ्चकल्पचूर्णि के उल्लेख हम आगे देखेंगे। खास तौर पर दीक्षा-प्रव्रज्या देने के मुहूर्त विषय में इन्होंने श्राजीविकों से शिक्षा पाई थी। अब हम देखते हैं कि वराहमिहिर के बृहज्जातक के टीकाकार उत्पलभट्ट (ई० स० ६ वीं शताब्दी) ने एक जगह टीका में वकालकाचार्य के प्रव्रज्या-विषयक प्राकृतभाषा के विधान का सहारा दिया है और मूल गाथायें भी अपनी टीका में अवतारित की है। वह विधान निम्नलिखित शब्दों में है: "एते वकालकमताद् व्याख्याताः । तथा च वङ्कालकाचार्यः तावसिओ दिणणाहे चन्दे कावालिश्रो तहा भणियो। रत्तवडो भुमिसुवे सोमसुवे एअदंडीया ॥ देवगुरुसुक्ककोणे कमेण जइ-चरअ-खमणाई। अस्यार्थः तावसिनो तापसिकः दिणणाहे दिननाथे सूर्ये चन्दे चन्द्रे कावालिश्रो कापालिकः तहा भणियो तथा भणितः। रत्तवडो रक्तपटः। भुमिसुवे भूमिसुते सोमसुवे सोमसुते बुधे एअदंडीश्रा एकदण्डी।...कमेण ७. डॉ. पी० सी० बागची, इन्डिया अॅन्ड चाइना (द्वितीय संस्करण, बम्बई, १९५०), पृ० ५-६, १६१७, १६-२७. ८. कल्पना, फरवरी, १६५२, पृ० ११८. ... . महामहोपाध्याय पां० वा. काणे, वराहमिहिर एन्ड उत्पल, जर्नल ऑफ ध बॉम्बे ब्रान्च ऑफ ध रॉयल एशियाटिक सोसाइटि, १९४८-४६, पृ० २७ से आगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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