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सुवर्णभूमि में कालकाचार्य पढमाए व से कडगं, देइ महं सयसहस्समुल्लं तु। बितियाए कुंडलं तू, ततियाए वि कुंडलं बितियं ।। आजीविता उवहित, गुरुदक्खिएणं तु एय अहं ति । तेहिं तयं तु गहितं, इयरोचितकालकज्ज तु ।। णहम्मि उ सुत्तम्मी, अत्थम्मि अणढे ताहे सो कुणइ।. लोगणुजोगं च तहा, पढमणुजोगं च दोऽवेए। बहुहा णिमित्त तहियं, पढमणुप्रोगे य हॉति चरियाई । जिण-चकि-दसाराणं, पुवभवाइं णिबद्धाई ॥ ते काऊणं तो सो, पाडलिपुत्ते उवहितो संघ । बेइ कतं मे किंची, अणुग्गहहाए तं सुणह ।। तो संघेण णिसंतं, सोऊण य से पडिज्छितं तं तु । तो तं पतिहितं तू, णगरम्मी कुसुमणामम्मि ॥ एमादीणं करणं, गहणा णिज्जूहणा पकप्पो उ।
संगहणीण य करणं, अप्पाहाराण उ पकप्पो ।' ४ पहले पञ्चकल्पचूर्णि का बताया हुया वृत्तान्त यहाँ पर है, और यह भाष्यगत वृत्तान्त ही चूणि का मूल है। भाष्यगाथा में स्पष्टीकरण है कि निमित्त सिखने के लिए कालकाचार्य प्रतिष्ठान नगर को गये और वहाँ उन्होंने आजीविकों से निमित्त पढ़ा। पढ़ने के बाद किसी समय वे वट-वृक्ष के नीचे स्थित थे जहाँ 'सालाहरणनरिन्द' जा पहुँचा और कालक से तीन प्रश्न पूछे। प्रश्न और गुरुदक्षिणा वाली बात दोनों ग्रन्थों में समान है किन्तु भाष्य में अागे की बातें कुछ विस्तार से हैं। भाष्यकार कहते हैं कि इस प्रसङ्ग के बाद कालकाचार्य अपने उचितकार्य में-धर्मकार्य में धर्माचरण में-लगे। सूत्र नष्ट होने से और अर्थ अनष्ट होने से (मतलब कि सूत्र दुर्लभ हो गये थे किन्तु प्रतिपाद्य विषय का अर्थज्ञान शेष था।) इन्होने लोकानुयोग और प्रथमानुयोग इन दोनों शास्त्रों की रचना की। लोकानुयोग में निमित्तज्ञान था, और प्रथमानुयोग में जिन, चक्रवर्ती, दशार इत्यादि के चरित्र थे। इस रचना के बाद वे पाटलिपुत्र में सङ्घ के समक्ष उपस्थित हुए और अपनी ग्रन्थरचना सुनने की विज्ञप्ति की। ग्रन्थों को सुनकर इनको सङ्घने प्रमाणित-किये-मान्य रक्खे। वे शास्त्रग्रन्थ माने गये। इन सब का करना, नियूहन करना इत्यादि को जैन परिभाषा में प्रकल्प' कहते हैं। और सङ्कहणी इत्यादि की रचना भी प्रकल्प बोली जाती है। . . ... इस तरह हम देखते हैं कि आर्य कालक निमित्तशास्त्र के बड़े पण्डित थे और प्रव्रज्या के विषय में (निमित्तशास्त्र का) इन्होंने आजीविकों से सविशेष अध्ययन किया था। वे बड़े ग्रन्थकर्ता थे जिन्होंने प्रथमानुयोग, लोकानुयोग इत्यादि की रचना की। इस लोकानुयोग में निमित्तशास्त्र अाता है। अतः क्यों कि प्रव्रज्या के विषय में ही वराहमिहिर वङ्कालक के मत का अनुसरण करते हैं और उसी विषय की उनकी रची हुई गाथायें उत्पल भट्ट ने उद्धृत की हैं । हमें विश्वास होता है कि 'बालक' से आर्य कालक ही उद्दिष्ट हैं। हमें यह भी खयाल रखना चाहिये कि उत्पलभट्ट ने अवतारित की हुई गाथायें उसी प्राकृत में हैं जिसमें जैनशास्त्र रचे गये हैं।
इस चर्चा से यह फलित होता है कि आर्य कालक, अनुयोग-कार कालक, निमित्तवेत्ता कालक :::::१४. पस्नकल्पभाष्य, मुनिश्री हंसविजयजी शास्त्रसंग्रह (श्री आत्मारामजी जैन शानमन्दिर, बडोदा), हस्तलिखित प्रति नं. १६७३, पत्र ५०.
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