Book Title: Suvarnabhumi me Kalakacharya
Author(s): Umakant P Shah
Publisher: Jain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras

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Page 35
________________ ३२ सुवर्णभूमि में कालकाचार्य गर्द्दभिल्ल के, बलमित्र के, या शकों के राज्य के वर्ष आदि नहीं दिये गये । किन्तु गर्द्दभिल्लोच्छेद के बाद अवन्ति में कौन राजा हुआ इस विषय में क़रीब सब कथानकों और प्राचीन संदर्भों का निर्देश यही है कि गर्द्दभिल्ल के बाद शक राजा हुआ। उसके बाद बलमित्र अवन्ति का राजा हुआ ? और ऐसा हुआ तो कब हुआ ? इन सब बातों का निश्चय करना मुश्किल है क्यों कि चतुर्थीकरणावाली घटना गर्द्दभिलोच्छेद के पूर्व या पश्चात् हुई उसका पक्का पता नहीं लगता। अगर बाद में हुई - जैसा कि ज्यादह सम्भव है - तत्र भी बल मित्र अवन्ति-उज्जयिनी में राजा था या भरुकच्छ में ? इस विषय में मतभेद रहेगा । मान लें कि उस समय बलमित्र उज्जयिनी में था तब भी उसके बाद कौन राजा हुआ ? कथानकों के अस्पष्ट उल्लेखों का सारांश तो यह है कि उस शकराजा से जो वंश चला वह शककुल- शकवंश नाम से प्रसिद्ध और कालान्तर हुआ में उस वंश का उन्मूलन विक्रम ने किया। उसके ( विक्रम के ) वंश के बाद फिर शक राजा हुआ जिसका शकसंवत् ( ई० स० ७८ से ) चला। इस संवत् और विक्रम संवत् में १३५ वर्षका अन्तर है। कोई संदर्भ या कथा यह नहीं कहती कि बलमित्र यही विक्रमादित्य है । बलमित्र को विक्रमादित्य गिनने से गर्छभिल्लोच्छेदक कालक का समय जो वास्तव में वीरात् ३३५ - ३७६ आसपास है उसको हठाकर वीरात् ४५३ मानना पड़ता है और वीरात् ४५३ और ४७० के बीच बलमित्र, नभःसेन, और शकराजा के राज्यवर्ष घटाने पड़ते हैं । ७५ यहाँ हम पहले तो तित्थोग्गाली पइन्नय के उल्लेख को देखें- "जं रयरिंग सिद्धिगय्रो, अरहा तित्थंकरो महावीरो । तं रयणिमवंतीए, अभिसित्तो पालो राया ॥। ६२० ॥ फिर आगे चतुर्थीकरणवाली घटना में लिखा है- बलमित्त भाणुमित्ता, आसी अवंती राय जुवराया | बिंति परे भरुअच्छे, कालयसूरी वि तत्थ गयो || ४७ ॥ वही पृ० ५५ ७५. देवचन्द्रसूरि-रचित कथानक ( रचना सं० ११४६ = १०८६ ई० स० ) में कहा गया है— " सगकूलाओ जेणं समागया तेण ते सगा जाया । एवं सगराईं, एसो वंसो समुप्पण्णो ॥ ६२ ॥ कालंतरेण केराइ, उप्पाडेन्ता सगाण तं वंसं । जाओ मालवराया, णामेणं विक्कमाइच्चो || ६४ ॥ पयरावि धराए रिणपरिहीणं जणं विहेऊण | गुरुरत्थवियरायिओ संवच्छरो जेण ॥ ६७ ॥ तस्स वि वंसं उप्पाडिऊण जाओ पुणो वि सगराया । उज्जेणिपुरवरी, पयपंकय परणयसामंतो ॥ ६८ ॥ पणती से वाससए, विक्रम संवच्छराओ वोली । परिवत्तिऊण ठविओ, जेणं संवच्छरो गियगो ॥ ७० ॥ Jain Education International नवाब प्रकाशित, कालकाचार्यकथा, पृ० १३. १२ शताब्दि ) विरचित कथानक में है, १३१२ = १२५५ ई० स० ) भी इसी मतलब इसी मतलब का बिधान मलधारि श्री हेमचन्द्रसूरि ( वि० सं० देखो नवाब, वही, पृ० ३० । वही, पृ० ८१ पर भावदेवसूरि ( वि० सं० का विधान करते हैं। वही, पृ० १३ पर श्री धर्मप्रभसूरि (वि. सं. १३९८ ) भी ऐसा उल्लेख करते हैं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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