Book Title: Suvarnabhumi me Kalakacharya
Author(s): Umakant P Shah
Publisher: Jain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras

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Page 45
________________ सुवर्णभूमि में कालकाचार्य इन स्थलों के बारे में कथात्रों में कुछ गड़बड़ हुई है जिसकी मुनिश्री कल्याणविजयजी ने अच्छी तरह छानबिन की है। आप लिखते हैं "प्राकृत कालक कथा में 'पारसकूल' की जगह 'शककूल' नाम मिलता है। प्रभावकचरित्रान्तर्गत कालक-प्रबन्ध में इस स्थान का नाम 'शाखिदेश' लिखा है। कल्पसूत्रमूल के साथ छपी हुई संस्कृत 'कालक-कथा' में इस स्थान को 'सिंधु नदी का पश्चिम पार्श्वकूल' लिखा है। फिर 'हिमवन्तथरावली' में इस स्थल का नाम सिंधु देश कहा है। इन भिन्न-भिन्न नामों में हमारी संमति में 'पारसकूल' नाम ही सही है, जिसका उल्लेख इस विषय के सबसे पुराने ग्रंथ 'निशीथचूर्णि' में है।९५ xxx पारस-कूल का अर्थ फारस का किनारा होगा। xx क्यों कि वहाँ के निवासी लोग शकजाति के हैं, अतः उस प्रदेश का 'शककूल' नाम भी संगत है। xxxxx कालक कथात्रों में सिंधु नदी पार होकर सौराष्ट्र में कालकाचार्य के आने का उल्लेख है, पर यह भ्रान्तिशून्य नहीं है। क्योंकि सिंधु नदी पार करके पंजाब अथवा सिंध में जा सकते हैं, सौराष्ट्र में नहीं। परंतु यह बात तो सभी लेखक एक-स्वर से स्वीकार करते हैं कि कालकाचार्य सौराष्ट्र में ही उतरे थे। यदि वे साहियों के साथ सिंधु नदी पार कर हिन्दुस्थान में आये होते, तो सौराष्ट्र में किसी प्रकार न उतर सकते। इससे यही सिद्ध होता है कि वे सिंधु-नदी नहीं, बल्कि सिंधु-समुद्र के द्वारा सौराष्ट्र में उतरे थे। 'निशीथचूर्णि' में तो सौराष्ट्र में ही उतरने का उल्लेख है, वहाँ सिंधु नदी का नामोल्लेख नहीं है। संभव है, सिंधु के साथ नदी शब्द पीछे से जुड़ा गया है।” ९६ मुनिजी की यह समीक्षा महत्त्व की है। इससे कालक का समुद्रयान-जहाज़यान सिद्ध होता है। अगर यह बात सही है तब तो कालक के सुवर्णभूमिगमन (हिंदी-चीन आदि देशों में गमन) के वृत्तान्त में पुराने खयाल के जैन श्रावकवर्ग और साधुगण को भी शङ्का न होनी चाहिये। कालकाचार्य सुवर्णभूमि में खुश्की रास्ते से ही गये होंगे। किसी को शङ्का हो सकती है कि वे दुर्गम खुश्की रास्ते से नहीं जा सकते और जाहाज़ी रास्ते से साधु जाते नहीं, किन्तु कालकाचार्य के विषय में यह शङ्का भी नष्ट हो जाती है, क्योंकि आर्य कालक शकों के साथ जाहाजी रास्ते से पाये होंगे ऐसा मुनिजी का मत है। वह मत ठीक लगता है। फिर अनाम के ग्रन्थ में जो लिखा है कि कालाचार्य अनाम से जहाज़-यान से टोन्किन (दक्षिण चीन) में गये थे यह विधान भी अशक्य नहीं लगेगा। परिशिष्ट ३ रत्नसञ्चय प्रकरण की गाथाओं पर मुनिश्री कल्याणविजयजी मुनिश्री कल्याण विजयजी इन गाथात्रों के बारे में लिखते हैं—“ जहाँ तक हमने देखा है श्यामार्य नामक प्रथम कालकाचार्य का सत्ताकाल सर्वत्र निर्वाण सं. २८० में जन्म, ३०० में दीक्षा, ३३५ में युगप्रधानपद और ३७६ में स्वर्गवास ऐसा लिखा है। इनका सम्पूर्ण आयुष्य ६६ वर्ष का था। ये 'प्रज्ञापनाकार' और 'निगोदव्याख्याता' नामों से भी प्रसिद्ध थे। इन सब बातों का विचार करने के बाद यह कहना लेश भी अनुचित न होगा कि उक्त 'प्रकरण' की गाथा में जो प्रथम कालकाचार्य का निरूपण किया गया है, वास्तव में वही सत्य है।" १५. उन के ख्याल से पारसकुल नहीं किन्तु पारसकूल शब्द होना चाहिये, देखो वही, पृ० ११०, पादनोंध, १,२,३. ६६. वही, पृ. ११०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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