Book Title: Supasnaha Chariyam
Author(s): Lakshmangani,
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust
View full book text
________________
परियणमझम्मि कोवि अवगनए आणं ? ॥८२॥ अहवावि सत्तुसीमंतिणीउ समसीसियं समं तुमए । कम्मिवि अत्ये कुन्वति कहसु कमलच्छि ! पसिउणं ॥८॥ सा जंपइ अवरदं न तए खूणपि कत्यविय विहियं । विसमंपि कोवि न नियइ नय आणं खटए
कोवि ॥८४॥ सत्तुकामिणीओवि मए समं कह कुणतु समसीसि । जयनिहणरक्खणखमा जा तुह पभवंति भुयदंडा ॥८६॥ किंपुण | पहु ! अवरज्झइ एत्य विही जेण सव्वसामगि । विहिऊण मंदपुनाए दंसिय नेय जायसुहं ॥८६॥ किंच, पिययम ! तुमंपि वसणा|सणभोयणमित्तपुन्नपरिभोगो । कस्स कए उप्पायसि विहवभरं संतईए विणा ? ॥८७॥ रयणनिहिणेव जणएण जेण महुम्यणस्सव
सुयस्स । उप्पाइऊण लच्छी वियरिज्जइ अइविसालावि ८८॥ तियसपुरपत्थियस्सवि होही तुह कहणु निव्वुई पच्छा । जइ नो हवि| स्सइ सुओ कुलधम्मघणाइबुढिकरो ॥८९॥ ता किं बहुणा पिय ! जंपिएण तं किंपि कुणसु तं इण्हि । गम्भाणुभावपंडुरगंडयलं निविषमदृष्ट्या पश्यति तव पादपङ्कजं कोऽपि । किंवा परिजनमध्ये कोप्यवगणयत्याज्ञाम् ॥८२॥ अथवापि शत्रुसीमन्तिन्यः स्पर्धा समं त्वया । कस्मिन्नप्यर्थे कुर्वन्ति कथय कमलाक्षि! प्रसीद्य ॥४३॥ सा जल्पत्यपराद्धं न त्वया क्षणमपि कुत्रापिच विहितम् । विषममपि कोऽपि न पश्यति नचाज्ञां खण्डयति कोऽपि ॥८॥ शत्रुकामिन्योऽपि मया समं कथं कुर्वन्तु स्पर्धाम् । जगन्निधनरक्षणक्षमौ यावत् तव प्रभवतो मुजदण्डौ ॥८५॥ किन्तु प्रभो ! अपराध्यत्यत्र विधियन सर्वसामग्रीम् । विधाय मन्दपुण्याया दर्शितं नैव जातसुखम् ॥८६॥ किञ्च, प्रियतम! त्वमपि वसनासनभोजनमात्रपूर्णपरिभोगः । कस्य कृते उत्पादयसि विभवभरं सन्तत्या विना ? ||८७॥ रत्ननिधिनव जनकेन येन मधुसूदनायेव सुताय । उत्पाद्य लक्ष्मीवितीर्यतेऽतिविशालापि ॥८८ त्रिदशपुरपस्थितस्यापि भविष्यति तव कथं नु निवृतिः पश्चात् । यदि नो भविष्यति १५. माय ।
For Personal & Private Use Only
linelibrary.org

Page Navigation
1 ... 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 ... 430