Book Title: Supasnaha Chariyam
Author(s): Lakshmangani,
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust
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10 अहं जीउच्छंगलंछणं नेय दुहियाचि ॥७३॥ इय तीए नियपसवावलंभचिंतासमुद्दपडियाए । तदुपरवरिखमा इन दिवससाण--
खणो पत्तो ।।७४।। एत्यंतरम्मि रोसारुणच्छिअसईकडक्खलक्खेहिं । विच्छुरियं पिव रविणो विवं आयंविरं जायं ॥७५॥ अच्छोययंव सेवइ खणेण भाण विलूणकरपसरो। अवरसमुद्दे पुणरवि दिणलच्छीसंगमनिमित्तं ॥७६॥ अत्यं गयम्मि सूरे कमेण अक्कमइ दसदिसाचकं । तम्मम्ममग्गगत्यंव पमुइयं तिमिरनिवसिविरं ॥७७॥ एत्तो यचंदलेहाए कोवभवणप्पवेसवुत्तो । संगामसूररायस्स साहियो सोवियल्लीए ॥७८॥ सोवि हु नियअवराहासंकासंभंतमाणसो एइ। तीसे पसायणत्यं कयसंझाविहियकायव्वो ॥७९॥ अभुट्टाणाइविहिं काऊणं सावि ठाइ तुण्डिका । तयभिमुहं सप्पणयं तो राया भणिउमारद्धो ॥८०॥ किं देवि! मए मणसावि कामिणिं कमवि अहिलसतेण । तुह अवरद्धं किंचिवि विहियं आहरणखूणं वा ।।८।। अहवावि विसमदिट्टीए नियइ तुह पायपंकयं कोवि ? । किंवा || सुतप्रसवफलनेन प्राप्तं नैव जन्मफलम् ॥७२॥ तस्मात्कथं नु श्लाघनीया प्रियमानसस्फुरणराजहंस्यपि । भवाम्यहं यस्या उत्सङ्गलाञ्छनं नैद दुहितापि ॥७३॥ इति तस्यां निजप्रसवोपलम्भचिन्तासमुद्रपतितायाम् । तदुःसदुःखित इव दिवसावसानक्षणः प्राप्तः ॥७॥ अत्रा तरे रोषारुणाक्ष्यसतीकटाक्षलक्षैः । विच्छुरितमिव रवेर्बिम्बमातानं जातम् ॥७५|| अच्छोदकमिव सेवते क्षणेन भानुर्विलूनकरप्रसरः। आरसमुद्रे पुनरपि दिनलक्ष्मीसङ्गमनिमित्तम् ॥७६॥ अस्तं गते सूरे क्रमेणाकामति दशदिक्चक्रम् । तन्मार्गमार्गणार्थमिव प्रमुदितं विमिरनृपशिबिरम्।।७७॥ इतश्च चन्द्रलेखायाः कोपभवनप्रवेशवृत्तान्तः। संग्रामशूरराजस्य कथितः सौविदल्ल्या॥७८॥ सोऽपि खलु निजापराधाशवासंग्रान्तमानस एति । तस्याः प्रसादनार्थ कृतसन्ध्याविहितकर्तव्यः॥७९।। अभ्युत्थानादिविधिं कृत्वा सापि तिष्ठति तूष्णीका । ददभिमुखं सप्रणयं ततो राजा माणतुमारब्धः ॥८॥किं देवि! मया मनसापि कामिनी कामप्यभिलषमाणेन । तवापराद्धं किञ्चिदपि विहितमाभरणक्षणं वा ॥८॥ अथवापि
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