Book Title: Supasnaha Chariyam
Author(s): Lakshmangani, 
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

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Page 19
________________ 2004 वयणं । किंकायव्वविमूढो जा चिटइ नरवरो तत्य ॥९८॥ ताव सहसत्ति पिच्छइ उज्जोयं कोवभवणमज्झम्मि । विम्हयवसेण तो चउ दिसिपि सो पेसए दिहि ॥९९॥ पेच्छइ य लुलंतमहंतरयणमयकुंडलिल्लंगडयलं । दारेणं पविसतं सुरजुयलं दिव्वकंतिल्लं ॥१०॥ सात दळूण तहाविहचिंधेहिं जाणिऊण देवत्ति । राया विम्हियहियओ अब्भुट्ठाणाइयं कुणइ ॥१.१॥भणइ य के तुम्भे एत्य आगया || केण वावि कज्जेण । इय तुम्ह चरियपीऊसपाणपउणा इमे सवणा ॥१०२॥ अह तम्मज्झा एगो देवो जंपइ सुणेसु नरनाह ! ।। सोहम्मे अम्हे दोवि इंदसामाणिया देवा ॥१०३॥ जेणव कज्जेण पुणो समागया तंपि संपयं सुणसु । खणमिक्कमवहियमणो होह साहिज्जए इत्तो॥१०४॥ नियविहवमहिमसरिसं चिरकालं तत्थ विसयसुहमणहं । अणुहवियममंदाणंदजलहिपरिमज्जिरंगेहिं॥१०५॥ अह | कइया नेसग्गियसग्गसिरीसंगभोगभंगकरा । जाया अम्हाण इमा दुट्टारिद्वाण रिछोली ॥१०६॥ कंठयलकलियमालापरिमलबहुलावि व्यविमूढो यावत्तिष्ठति नरवरस्तत्र ॥९८॥ तावत् सहसति पश्यति उद्द्योतं कोपभवनमध्ये । विस्मयवशेन ततश्चतुर्दिक्ष्वपि स प्रेषयति Hदृष्टिम् ।।९९॥ पश्यति च लोलन्महारत्नमयकुण्डलितगण्डतलम् । द्वारण प्रविशत् सुरयुगलं दिव्यकान्तिकम् ॥१००॥ तद् दृष्ट्वा तथाविधचिह्नात्वा देवाविति । राजा विस्मितहृदयोऽभ्युत्थानादिकं करोति ॥१०१॥ भणति च कौ युवामत्रागतौ केन वापि कार्येण ? । इति युवयोश्चरितपीयूषपानप्रगुणाविमौ श्रवणौ ॥१०२॥ अथ तन्मध्यादेको देवो जल्पति शृणु नरनाथ! । सौधर्म आवां द्वावपीन्द्रसामानिकी देवी॥१०॥ येन वा कार्येण पुनः समागतौ तदपि सांप्रतं शृणु । क्षणमेकमवहितमना भव कथ्यत इतः ॥१०॥ निजविभवमहिमसदृशं चिरकालं तत्र विषयमुखमक्षतम् । अनुभूतममन्दानन्दजलधिपरिमग्नानाभ्याम् ॥१०५॥ अथ कदाचिन्नैसर्गिकस्वर्गश्रीसङ्गभोगभङ्गकरा । जाताऽऽवयोरियं दुष्टारिष्टानां पतिः ॥१०६॥ कण्ठतलकलितमाला परिमलबहुलापि सदा विकासवती । आवयोर्भवनशीलदीप्रवासदुःखिता म्लायति - Anow - Jan Education Internation For Personal & Private Use Only

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