Book Title: Suman Vachanamrut Author(s): Vijaya Kotecha Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf View full book textPage 2
________________ सुमन वचनामृत धर्म और जीवन व्यवहार * असली गुरू तो वही है जो हमें निरंतर मोक्ष मार्ग की प्रेरणा देते हैं किंतु पंथवाद का/पक्षपात का जहर नहीं उगलते । यदि गुरु ही पक्षपात का जहर उगलने लगेंगे तो फिर अमत कौन बरसायेगा? जैन धर्म और दर्शन की जो आत्मा है, उसमें टेढापन नहीं है, न उसमें स्थानकवासी का भेद है, न तेरापंथ का है, न उसमें मर्तिपजक का भेद है और न ही श्वेताम्बर या दिगम्बर का। इस समाज को तो हमारी संकीर्ण दृष्टियों ने / विचारों ने ही विभाजित किया ___★ गुरु का अर्थ है - अध्यात्म जीवन के लिये सहारा। गरु और शिष्य की परम्परा तो एक जीवनपरम्परा है। साधना-मार्ग में लड़खड़ाते हुए को सहारा देने वाले सिर्फ गुरु ही होते हैं। * मानसिक चंचलता को दूर करने का सर्वोत्तम उपाय है - "गुरु आज्ञा" गुरु के निर्देश का सजग रह कर पालन करना/इसके लिए अपनी इच्छा को गौण करना अनिवार्य है। * सद्गुरुशरण-ग्रहण से व्यक्ति अपनी बुरी आदत, बुरे विचार तथा बुरे कर्म से सहज ही बच जाता है। ___★ सत्य की प्राप्ति, जिज्ञासा की पूर्ति गुरु-सम्मुख होने से ही होती है। ★ गुरु ही मानव को दानवी वृत्ति से दूर कर आध्यात्मिक वृत्ति में संलग्न करते हैं ताकि मनुष्य नारकीय/ पशुवत तथा दानवी जीवन व्यतीत न करके मानवता के साथ जीए। * जो व्यक्ति मत और दर्शन का आग्रह छोड़कर सद्गुरु के कथानुसार आचरण करता है, उसे शुद्ध सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। * जीवन व्यवहार में कठोर वचन, क्रोध के वचन, अहंकार के वचन काम नहीं देते। अविवेकपूर्ण वचनों से मुसीबतें खड़ी हो जाती हैं, आदमी विषद-ग्रस्त हो जाता हैं। इसके विपरीत जीवन व्यवहार में नम्रता धारण करने से व्यक्ति संकटों से उबर जाता है। * जीवन व्यवहार में हमारे खाते अलग-अलग हैं। झूठ बोलने के खाते अलग हैं, सच बोलने के खाते अलग हैं, कम तोलने-मापने के अलग हैं। अमानत में खयानत करने के अलग खाते हैं और धर्म स्थान में बैठ कर धर्म करने के खाते अलग हैं। क्या है यह सब? बहुत बड़ा मजाक है यह, जीवन को विद्रूप बनाने का। जब हम जीवन-व्यवहार में धर्म को नहीं लाते तब व्यवहार में से दुर्गन्ध आती है ; तो दूसरों को भी धर्म के प्रति नफरत हो जाती है कि धर्म ने इन्हें क्या सिखाया? धर्म ने इन पर क्या प्रभाव डाला है? धन और धर्म भिन्न-भिन्न वस्तुएं है। धन तो देह के सुखोपयोग और जीवनयापन के लिए है लेकिन धर्म आत्मा को शाश्वत शांति देने के लिये होता है। * अक्सर कहा - सुना जाता है कि मरने के बाद स्वर्ग-सुख मिलता है, देह त्याग के पश्चात् ही मोक्ष-सुख प्राप्त होता है आदि-आदि। किन्तु तत्त्व दृष्टि से विचार किया जाये तो वर्तमान जीवन जीते हुए यदि सुखानुभूति नहीं है, तो देह छोड़ने के बाद सुख की आशा करना मृगतृष्णा की भाँति दुराशा मात्र है। जो व्यक्ति वर्तमान में अपने क्रिया-कलापों से सन्तुष्ट हो वर्तमान जीवन में सुखसन्तोष से रहना चाहिये, भविष्य में स्वतः ही आनंद प्राप्त हो जाये। ★ बहुत काल तक शंका का समाधान न मिलने पर तत्त्व के प्रति असन्तोष उत्पन्न हो जाता है। वह असन्तोष सुमन वचनामृत ३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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