Book Title: Suman Vachanamrut Author(s): Vijaya Kotecha Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf View full book textPage 5
________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि “जागरह नरा ! निच्चं जागरमाणस्स बढ़ते बुद्धि” मनुष्यों ! सदा जागते रहो। जागृत रहने वालों की बुद्धि बढ़ती है। यह बुद्धि तत्त्व निर्णायक है । कषायविपय युक्त मन और बुद्धि विकृत होते हैं । अतः उनके प्रभाव से उचित निर्णय नहीं लिया जा सकता । दुर्योधन रावण आदि इसके ज्वलंत उदाहरण है । मूर्च्छा में जिस प्रकार होश- हवाश नहीं रहता, उसी प्रकार इस कषायाभिभूत प्राणी को भी जागरण नहीं रहता । हर व्यक्ति मन से तो चिंतन करता ही रहता है, किन्तु जागृत अवस्था का चिंतन / सोच सम्यक् होता है । सुप्तावस्था में या प्रमाद की अवस्था में चिन्तन सम्यक् नहीं होता । यदि तू मरना चाहता है, तो मेरे पास आ, मैं तुझे मरने की कला सिखाऊंगा। मैं जिस ढंग से कहूँ तू उसी ढंग से जी और मर तो मर कर के भी अमर हो जायेगा । यह मौत क्या मौत है, जो बार बार मरना और बार बार जीना पड़े। ऐसी मौत आनी चाहिये कि फिर कभी मरना ही न पड़े। स्वप्न के समान संसार का स्वरूप है । जिस प्रकार सोया हुआ व्यक्ति स्वप्न में नाना प्रकार के दृश्य देखता है और स्वयं को राजादि के रूपों में देखता है, किन्तु जागृत होते ही वे सब दृश्य लुप्त हो जाते हैं, इसी प्रकार जगत् भी बनता है, बिगड़ता है, एकावस्था में नहीं रहता । * ज्ञान हम कहते हैं मकान बहुत सुन्दर है, बहुत अच्छा है किन्तु खड़ा किसके आधार पर है? नींब के आधार पर । उस नींव को तो याद ही न करें। केवल ऊपर भवन के ३६ Jain Education International निर्माण को देख कर ही कहें तो एक पक्ष होगा, एकाकी दृष्टिकोण होगा | जैनदर्शन ने वस्तु को एकाकी कोण से देखने को 'अपूर्ण' ज्ञान कहा है। उसे अनेक दृष्टियों से देखना चाहिये, क्योंकि वस्तु अनेक धर्मात्मक है । आत्म - दर्शन जीवन का चरम लक्ष्य अर्हत् अवस्था प्राप्त करना है, न कि देवत्व को प्राप्त करना। ऐसी परम अवस्था में " अप्पा सो परमप्पा" आत्मा ही परमात्मा बन जाता है। अध्यात्म जीवन का मूल आधार 'आत्मा' है। इसका साक्षात्कार करना ही साधना या धार्मिक अनुष्ठानों का लक्ष्य है । स्वात्मा की उपलब्धि ही सिद्धि है । आत्मा जब तक शरीर, इन्द्रियों एवं मन से प्रभावित रहता है, उसके आश्रित रहता है, पूर्ण स्वावलंबी नहीं होता । हमारी आत्मा अनेक बन्धनों/माया, अविद्या, अज्ञान के आवरणों से आच्छादित है । अनन्त शक्तिमान् होते हुए भी उसको इस बात का भान नहीं होता कि मैं अनन्त शक्ति वाला हूँ लेकिन जब ज्ञान प्राप्त होता है, आवरणों के सारे बन्धन टूट जाते हैं । हम जितना अधिक विभाव इकट्ठा करते हैं, दुखी होते है । यह जीव (आत्मा) एक से दो अर्थात् जीव व पुद्गल दोनों का सम्मिश्रण हो जाता है, तो दुख ही दुख उत्पन्न हो जाते हैं। आत्मा अकेली रहे और जड़, अज्ञान, अविद्या से दूर रहे तो अनन्त सुख का अजस्र स्रोत निरन्तर प्रवाहित होता रहेगा । जब आंखों के सामने विषम परिस्थिति आये और उस समय हमारे मन में राग द्वेष न आये एवं मन सम For Private & Personal Use Only सुमन वचनामृत www.jainelibrary.orgPage Navigation
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